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गाया ४०७ से ४१०
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सुशील धीर साधक के लिए ५ निर्देश-(१) जलस्नान में कर्मबन्ध जानकर उसका परित्याग करे, (२) प्रासुक (विकट) जल से संसार से विमुक्तिपर्यन्त जीवन निर्वाह करे, (३) बीज, कंद आदि अशस्त्रपरिणत सचित्त वनस्पति का उपभोग न करे, (४) स्नान, अभ्यंगन, उद्वर्तन आदि शरीरविभूषाक्रियाओं से विरत हो, (५) स्त्रीसंसर्ग आदि से भी दूर रहे।
कठिन शब्दों की व्याख्या-धम्मलद्ध वि णिहाय भुजे=दो अर्थ फलित होते हैं-(१) भिक्षादोषरहित धर्मप्राप्त आहार का संग्रह करके खाता है, (२) धर्मलब्ध आहार को छोड़कर अन्य स्वादिष्ट (अशुद्ध) आहार-सेवन करता है । सूसयतीव वत्थं =विभूषार्थ वस्त्र को छोटा या बड़ा (विकृत) करता है । आदिमोक्खं दो अर्थ-(१) आदि संसार, उससे मोक्ष तक, (२) धर्मकारणों का आदिभूत-शरीर, उसकी विमुक्ति (छूटने) तक।" सशील साधक के लिए आचार विचार के विवेकसूत्र
४०७. अण्णातपिंडेणऽधियासएज्जा, नो पूयणं तवसा आवहेज्जा।
सद्देहि स्वेहिं असज्जमाणे, सव्वेहि कामेहिं विणीय गेहिं ॥२७॥ ४०८. संव्वाइं संगाइं अइच्च धोरे, सव्वाइं दुक्खाई तितिक्खमाणे ।
अखिले अगिद्ध अणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खू अणाविलप्पा ॥ २८ ॥ ४०६. भारस्स जाता मुणि भुजएज्जा, कंखेज्ज पावस्स विवेग भिक्खू ।
दुक्खेण पुढे धुयमातिएज्जा, संगामसीसे व परं दमेज्जा ॥ २६ ॥ ४१०. अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठी, समागमं कंखति अंतगस्स ।१२ णिधूय कम्मं पवंचुवेति, अक्खक्खए वा सगडं ति बेमि ॥ ३० ॥
॥ कुसीलपरिभासियं-सत्तमं अज्झयणं सम्मत्त। ४०७. सुशील साधु अज्ञातपिण्ड (अपरिचित घरों से लाये हुए भिक्षान्न) से अपना निर्वाह करे, तपस्या के द्वारा अपनी पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा न करे, शब्दों और रूपों में अनासक्त रहता हुआ तथा समस्त काम-भोगों से आसक्ति हटाकर (शुद्ध संयम का पालन करे।)
४०८. धीर साधक सर्वसंगों (सभी आसक्तिपूर्ण सम्बन्धों) से अतीत (परे) होकर सभी परीषहोपसर्गजनित शारीरिक मानसिक दुःखों को (समभावपूर्वक) सहन करता हुआ (विशुद्ध संयम का तभी पालन कर पाता है जब वह) अखिल (ज्ञान-दर्शन-चारित्र से पूर्ण) हो, अगृद्ध (विषयभोगों में अनासक्त)
१० सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १६१ से १६३ तक का सारांश ११ (क) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० ७२-७३
(ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पनांक १६१-१६२ १२ तुलना-बवि हम्ममाणे फलगावती कालोवणीते कंखेज्ज कालं"
-आचारांगसूत्र सूत्र १०८ पृ० २३२