SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४ सूत्रकृतांग-सप्तम अध्ययन-कुशील परिभाषित ही आत्मा को दण्डित करता है । संसार में तीर्थंकरों या प्रत्यक्षदर्शियों ने उसे अनार्यधर्मी (अनाड़ी या अधर्मसंसक्त) कहा है। विवेचन-कुशीलों द्वारा स्थावर जीवों की हिंसा के विविध रूप-प्रस्तुत ५ सूत्रगाथाओं (३८५ से ३८९ तक ) द्वारा शास्त्रकार ने कुशीलधर्मा कौन है ? वह किसलिए, और किस-किस रूप में अग्निकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों का घात करता है ? इसका विशद निरूपण किया है। भूताई जे हिसति आतसाते-इस पंक्ति का आशय यह है कि जो अपनी सुख-सुविधा के लिए, परलोक में सुख मिलेगा, या स्वर्ग अथवा मोक्ष का सुख मिलेगा, इस हेतु से, अथवा धर्मसम्प्रदाय परम्परा या रीतिरिवाज के पालन से यहां सभी प्रकार का सुख मिलेगा, इस लिहाज से अग्नि, जल, वनस्पति, पृथ्वी आदि के जीवों की हिंसा करते हैं । अथवा स्वर्गप्राप्ति की कामना से विविध अग्निहोम या पंचाग्निसेवनतप आदि क्रियाएँ करते हैं, फल फूल आदि वनस्पतिकाय का छेदन-भेदन करते हैं, वे सब कुशीलधर्मा है। .. अग्नि जलाने और बुझाने में अनेक स्थावर-प्रस जीवों की हिंसा-जो व्यक्ति इह लौकिक या पारलौकिक किसी भी प्रयोजन से अग्नि जलाता है, वह अग्निकायिक जीवों की हिंसा तो करता ही है, अग्नि जहां जलाई जाती है, वहां की पृथ्वी के जीव भी आग की तेज आँच से नष्ट हो जाते हैं, अग्नि बुझाने से अग्निकाय के जीवों का घात तो होता ही है, साथ ही बुझाने के लिए सचित्त पानी का प्रयोग किया जाता है, तब या भोजन पकाने में जलकायिक जीव नष्ट हो जाते हैं, कंडे लकड़ी आदि में कई त्रस जीव बैठे रहते हैं. वे भी आग से मर जाते हैं, पतंगे आदि कई उड़ने वाले जीव भी आग में भस्म हो जाते हैं। इस प्रकार आग जलाने और बझाने में अनेक जीवों की हिंसा होती है, इसी बात को शास्त्रकार ने ३८६-३८७ इन दो सत्रगाथाओं द्वारा व्यक्त किया है-"उज्जालओ" " अगणि समारभेज्जा । पुढवी पि जीवा "अगणि समारभंते।" वत्तिकार ने भगवती सूत्र का प्रमाण प्रस्तुत करके सिद्ध किया है कि भले ही व्यक्ति आग जलाने में महाकर्म युक्त और बुझाने में अल्पकर्मयुक्त होता है, परन्तु दोनों हो क्रियाओं में षटकायिक आरम्भ होता है। विलंबगाणि=जो जीव का आकार धारण कर लेते हैं। कुशील द्वारा हिंसावरण का कटु विपाक ३९०. गम्भाइ मिज्जति बुया-ऽबुयाणा, णरा परे पंचसिहा कुमारा। जुवाणगा मज्झिम थेरगा य, चयंति ते आउखए पलीणा ॥ १० ॥ ३६१. संबुज्झहा जंतवो माणुसत्तं, ठुभयं बालिसेणं अलंभो। एगंतदुक्खे जरिते व लोए, सकम्मुणा विष्परियासुवेति ॥ ११ ॥ ३ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १५६ के आधार पर ४ वही, पत्रांक १५६-५७ के आधार पर ५ भगवतीसूत्र शतक ७ । सूत्र २२७-२२८ (अंगसुत्तणि भाग २)
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy