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सत्तमं अज्झयणं 'कुसीलपरिभासियं'
कुशीलपरिभाषित (कुशीलपरिभाषा) : सातवां अध्ययन कुशीलकृत जीवहिंसा और उसके दुष्परिणाम
३८१. पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ, तण-रुक्ख-बीया य तसा य पाणा।
जे अंडया जे य जराउ पाणा, संसेयया जे रसयाभिधाणा ॥ १॥ ३८२. एताई कयाइं पवेदियाई, एतेस जाण पडिलेह सायं।
एतेहिं कायेहि य आयबंडे, एतेसु या विपरियासुविति ॥ २॥ २८३ जातीवहं अणुपरियट्टमाणे, तस-थावरेहि विणिघायमेति ।
से जाति-जाती बहूकूरकम्मे, जं कुव्वतो मिज्जति तेण बाले ॥३॥ ३८४. अस्सि च लोगे अवुवा परस्था, सतग्गसो वा तह अन्नहा वा।
संसारमावन्न परं परं ते, बंधति वेयंति य दृष्णियाइं ॥ ४ ॥ ३८१-३८२. पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, तृण, वृक्ष, बीज और त्रस प्राणो तथा जो अण्डज हैं, जो जरायुज प्राणी हैं, जो स्वेदज (पसीने से पैदा होने वाले) और रसज (दूध, दही आदि रसों की विकृति से पैदा होने वाले) प्राणी हैं। इन (पूर्वोक्त) सबको सर्वज्ञ वीतरागों ने जीवनिकाय (जीवों के काय-शरीर) बताए हैं । इन (पूर्वोक्त पृथ्वीकायादि प्राणियों) में सुख की इच्छा रहती है, इसे समझ लो और इस पर कुशाग्र बुद्धि से विचार करो।
जो इन जीवनिकायों का उपमर्दन-पीड़न करके (मोक्षाकांक्षा रखते हैं, वे) अपनी आत्मा को दण्डित करते हैं, वे इन्हीं (पृथ्वीकायादि जीवों) में विविध रूप में शीघ्र या बार-बार जाते (या उत्पन्न होते) हैं।
३८३. प्राणि-पीड़क वह जीव एकेन्द्रिय आदि जातियों में बार-बार परिभ्रमण (जन्म, जरा, मरण आदि का अनुभव करता हुआ) करता हुआ त्रस और स्थावर जीवों में उत्पत्र होकर कायदण्ड विपाकज
१ तुलना कीजिए-“भूतेहिं जाण पडिलेह सातं' -आचारांग विवेचन प्र० श्रु० अ०-२ उ-२ सू० ११२ पृ० ९४ २ तुलना कीजिए-'विप्परियासमुवेति' -आचा०-विवेचन प्र० श्रु० अ० २ उ०३ सू० ७७,७६, ८२ पृ०५१