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________________ गाचा ३७७ से ३७९ ३२७ ३७६. भगवान महावीर पृथ्वी के समान (समस्त प्राणियों के लिए आधारभूत) है। वे (आठ प्रकार के) कर्ममलों को दूर करने वाले हैं। वे (बाह्य और आभ्यन्तर पदार्थों में गृद्धि (आसक्ति) से रहित हैं । वे आशुप्रज्ञ (धन-धान्य आदि पदार्थों का) संग्रह (सन्निधि) नहीं करते हैं । अथवा वे (क्रोधादि विकारों की) सन्निधि (निकटता-लगाव) नहीं करते। (चातुर्गतिक) महान् संसार समुद्र को समुद्र के समान पार करके (भगवान निर्वाण के निकट पहुँचे हैं।) वे अभयंकर (दूसरों को भय न देने वाले, न ही स्वयं भय पाने वाले) हैं; वीर (कर्म-विदारण करने के कारण) हैं और अनन्त (चक्षु ज्ञानी) हैं। ___३७७. महर्षि महावीर क्रोध, मान और माया तथा चौथा लोभ (आदि) इन (समस्त) अध्यात्म(अन्तर) दोषों का वमन (परित्याग) करके अर्हन्त (पूज्य, विश्ववन्द्य, तीर्थंकर) बने हैं। वे न स्वयं पापाचरण करते हैं और न दूसरों से कराते हैं। ३७८. भगवान महावीर क्रियावाद, अक्रियावाद, (विनय) वैनयिकों के वाद और (अज्ञानिकों के अज्ञान) वाद के पक्ष को सम्यक रूप से जानकर तथा समस्त वादों (के मन्तव्य) को समझ कर आजीवन (दीर्घरात्र तक) संयम में उत्थित (उद्यत) रहे। ३७६. वे वीरप्रभु रात्रि-भोजन सहित स्त्रीसंसर्ग का त्यागकर दुःखों के (कारणभूत कर्मों के) क्षय के लिए (सदा) विशिष्ट तप में उद्यत रहते थे। उन्होने इहलोक और परलोक को जानकर सब प्रकार के पापों का सर्वथा त्याग कर दिया था। विवेचन-भगवान् महावीर की विशिष्ट उपलब्धियां प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं (३७६ से ३७६ तक) में भगवान महावीर के जीवन की विशिष्ट उपलब्धियों का निरूपण शास्त्रकार ने किया है। वे विशिष्ट उपलब्धियाँ ये हैं-(१) पृथ्वी के समान वे प्राणियों के आधारभूत हो गए, (२) अष्टविध कर्मों का क्षय करने वाले हुए, (३) बाह्याभ्यन्तर पदार्थों में गृद्धि-रहित हो गए, (४) वे धनधान्यादि पदार्थों का संग्रह या क्रोधादि विकारों का सान्निध्य नहीं करते थे, (५) संसारसमुद्र को पार करके निर्वाण के निकट पहुंच गए, अभयंकर, (७) वीर तथा (८) अनन्तचक्षु हो गए। (९) क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आन्तरिक (आध्यात्मिक) विकारों का त्याग करके महर्षि एवं अर्हन्त हो गए, (१०) अब हिंसादि पापों का आचरण न तो वे स्वयं करते हैं, न कराते हैं । (११) क्रियावाद आदि समस्त वादों को स्वयं जानकर दूसरों को समझाते। (१२) जीवनपर्यन्त शुद्ध संयम में उद्यत रहे, (१३) अपने जीवन और शासन में उन्होंने रात्रिभोजन और स्त्रीसंसर्ग (अब्रह्मचर्य) वर्जित किया, (१४) दुःख के कारणभूत कर्मों के क्षय के लिए वे सदैव विशिष्ट तपःसाधना करते रहे, (१५) इहलोक-परलोक (चातुर्गतिक संसार) के स्वरूप और कारणों को जानकर उन्होंने सब प्रकार के पापों का सर्वथा निवारण कर दिया। पाठान्तर और व्याख्या-उवट्ठिते संजम दोहरायं=दीर्घरात्र तक यावज्जीव संयम में उत्थित रहे, चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'उवट्ठिते सम्म स दोहराय'-वे जीवनपर्यन्त मोक्ष के लिए सम्यक्रूप से १२ क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी के ३६३ भेदों तथा उनके स्वरूप का विश्लेषण समवसरण (१२) अध्ययन में यथास्थान किया जाएगा। -सम्पादक १३ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १५१ का सारांश
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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