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( ३३ ) चणियाँ लिखी गई हैं। किन्तु वर्तमान में एक-एक ही उपलब्ध है। अनुयोग द्वार, बृहत्कल्प एवं दशवकालिक पर भी दो-दो चूर्णियां हैं। जिनदासगणि महत्तर की मानी जाने वाली निम्नांकित चूणियों का रचनाक्रम इस प्रकार है। १. नन्दी चूर्णि, २. अनुयोगद्वार चूणि, ३. ओघनियुक्ति चूणि, ४. आवश्यक चूर्णि, ५. दशवकालिक चूर्णि, ६. उत्तराध्ययन चूणि, ७. आचारांग चूर्णि, ८. सूत्रकृतांग चूणि और ६. व्याख्याप्रज्ञप्ति चूणि । नन्दी चूणि, अनुयोगद्वार चूर्णि, जिनदास कृत दशवकालिक चूणि, उत्तराध्ययन चूणि, आचारांग चूणि, सूत्रकृतांग चूणि, निशीथ विशेष चणि, दशाश्रुत स्कन्ध चूणि एवं बृहत्कल्प चूणि संस्कृत मिश्रित प्राकृत में हैं। आवश्यक चूणि, अगस्त्यसिंह कृत दशवकालिक चूणि एवं जीतकल्प चूणि (सिद्धसेन कृत) प्राकृत में है।
चूणिकार : चूणिकार के रुप में जिनदासगणि महत्तर का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है । परम्परा से निम्न चूर्णियाँ
की मानी जाती हैं । निशीथ विशेष चूणि, नन्दी चूणि, अनुयोगद्वार चूणि, आवश्यक चणि, दशवकालिक चूणि, उत्तराध्ययन चूणि, आचारांग चूणि, सूत्रकृतांग चूणि । उपलब्ध जीतकल्प चुणि के कर्ता सिद्धसेनसूरि हैं। वृहत्कल्प चूणि प्रलम्बसूरि की कृति है । अनुयोग द्वार की एक चूणि (अंगुल पद पर) के कर्ता भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भी हैं । यह चूणि जिनदास गणिकृत अनुयोगद्वार चूणि में अक्षरशः उद्धृत है । दशवकालिक पर अगस्त्य सिंह ने भी एक चूणि लिखी है। इसके अतिरिक्त अन्य चूर्णिकारों के नाम अज्ञात हैं।
प्रसिद्ध चूर्णिकार जिनदास गणि महत्तर के धर्मगुरु का नाम उत्तराध्ययन चूणि के अनुसार वाणिज्य कुलीन कोटिक गणीय, वज्रशाखीय गोपालगणि महत्तर है तथा विद्यागुरु का नाम निशीथ विशेष चूणि के अनुसार, प्रद्युम्न क्षमाश्रमण है । जिनदास का समय भाष्यकार आचार्य जिनभद्र और टीकाकार आचार्य हरिभद्र के बीच में है। इसका प्रमाग यह है कि आचार्य जिनभद्रकृत विशेष आवश्यक भाष्य की गाथाओं का प्रयोग इनकी चूणियों में दृष्टिगोचर होता है तथा इनकी चूणियों का पूरा उपयोग आचार्य हरिभद्र की टीकाओं में हुआ दिखाई देता है । ऐसी स्थिति में चूणिकार जिनदासगणि महत्तर का समय वि० सं० ६५०-७५० के आसपास मानना चाहिए। क्योंकि इनके पूर्ववर्ती आचार्य जिनभद्र वि० सं० ६५०-६६० के आसपास तथा इनके उत्तरवर्ती आचार्य हरिभद्र वि० सं० ७५७-८२७ के आसपास विद्यमान थे। नन्दीचूणि के अन्त में उसका रचनाकाल शक संवत् ५१८ उल्लिखित है। इस प्रकार इस उल्लेख के अनुसार भी जिनदास का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी का पूर्वाद्ध निश्चित है।
- जीतकल्प चूणि के कर्ता सिद्धसेन सूरि प्रसिद्ध सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न है। इसका कारण यह है कि सिद्धसेन दिवाकर जीतकल्प सूत्र के प्रणेता आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं। जबकि चूणिकार सिद्धसेन सूरि आचार्य जिनभद्र के पश्चात्वर्ती हैं । इनका समय वि० सं० १२२७ के पूर्व है, पश्चात् नहीं, क्योंकि प्रस्तुत जीतकल्प चूणि की एक टीका, जिसका नाम विषमपद व्याख्या है, श्रीचन्द सूरि ने वि० सं० १२२७ में पूर्ण की. थी। प्रस्तुत सिद्ध सेन संभवतः उप केशगच्छीय देव गुप्त सूरि के शिष्य एवं यशोदेव सूरि के गुरु भाई हैं।
सूत्रकृतांग चूणि : ... आचारांग चूणि और सूत्रकृतांग चूणि की शैली में अत्यधिक साम्य है । इनमें संस्कृत का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक है । विषय विवेचन संक्षिप्त एवं अस्पष्ट है । सूत्रकृतांग की चूणि भी आचारांग आदि की चूणि की ही भांति नियुक्त्यनुसारी है।