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सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा लिए विशुद्धात्मा (सुविशुद्धचेता) (स्त्रीसंसर्ग से) अच्छी तरह विमुक्त वह भिक्षु मोक्षपर्यन्त (संयमानुष्ठान में) में प्रवृत्त-उद्यत रहे। -ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन-स्त्रीसंग से विमुक्त रहने का उपदेश-स्त्रीपरिज्ञा--अध्ययन का उपसंहार करते हए शास्त्रकार ने चार गाथाओं (सू० गा० २६६ से २९६ तक) द्वारा ज्ञपरिज्ञा से पूर्वोक्त गाथाओं में कथित स्त्रीसंग से होने वाले अनर्थों को जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका सर्वथा त्याग करने का उपदेश दिया है।
स्त्रीसंग-त्याग क्यों, कैसे और कौन करें ?-प्रस्तुत चतु:सूत्री में स्त्रीसंगत्याग के तीन पहलू हैं-(१) साधु स्त्रीसंगत्याग क्यों करें ? (२) कैसे किस-किस तरीके से करें ? और (३) स्त्री-संगत्यागी किन विशेषताओं से युक्त हो ?
क्यों करें ? समाधान-साधु के लिए स्त्रीसंग परित्याग का प्रथम समाधान यह है कि प्रथम उद्देशक एवं द्वितीय उद्देशक की पूर्वगाथाओं में स्त्रीसंग से होने वाले अनर्थों, पापकर्म के गाढ़ बन्धनों, शीलभ्रष्ट साधक की अवदशाओं एवं विभिन्न विडम्बनाओं को देखते हुए साधु को स्त्रीसंग तथा स्त्रीसंवास से दूर रहना अत्यावश्यक है। जैसा कि सूत्रगाथा २६६ के पूर्वार्द्ध में कहा गया है-'एवं खु तासु विण्णप्पं संथवं संवासं च चएज्जा।'
दूसरा समाधान-स्त्रीसंसर्ग इसलिए वर्जनीय है कि तीर्थंकरों गणधरों आदि ने स्त्रीसंसर्ग से उत्पत्र होने वाले तज्जातीय जितने भी कामभोग हैं, उन्हें पापकर्म को पैदा करने वाले या वज्र के समान पापकर्मों से आत्मा को भारी करने वाले बताए हैं । उत्तराध्ययन सूत्र (अ० १४।१३) में भगवान् महावीर ने कहा है
"खणमित्त सुक्खा, बहुकाल दुक्खा पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा।
संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।" . काम-भोग क्षणमात्र सुख देने वाले हैं चिरकाल तक दुःख । वे अत्यन्त दुःखकारक और अल्प सुखदायी होते हैं, संसार से मुक्ति के विपक्षीभूत कामभोग अनर्थों की खान है।
तीसरा समाधान-पूर्वगाथाओं के अनुसार स्त्रियों द्वारा कामजाल में फंसाने की प्रार्थना, अनुनय, मायाचार आदि विविध तरीके तथा उनके साथ किया जाने वाला विभिन्न प्रकार का संसर्ग-संवास भयकारक है-खतरनाक है, वह साधु के संयम को खतरे में डाल देता है, इसलिए साधु के लिए वह 'कथमपि श्रेयस्कर-कल्याणकर नहीं है, इस कारण स्त्रीसंग सर्वथा त्याज्य है। इसे ही शास्त्रकार सूत्रगाथा २६७ के प्रथम चरण में कहते हैं- 'एयं भयं ण सेयाए।' .. चौथा समाधान-वीर प्रभु ने स्त्रीसंसर्ग को महामोहकर्मबन्ध का तथा अन्य कर्मों का कारण माना और स्वयं स्त्रीसंसर्गजनित कर्मरज से मुक्त बने, तथा राग-द्वेष-मोह-विजयी हुए। इसीलिए स्त्रीपरिज्ञाअध्ययन में जो बातें कही गई हैं, वे सब विश्वहितंकर शासनेश श्रमण भगवान महावीर ने विशेष रूप से साधकों के लिए कही हैं। वे श्रमण भगवान महावीर स्वामी के संघ (तीर्थ) के सभी साधु-साध्वियों के लिए लागू होती हैं । अतः भगवान् महावीर द्वारा रत्रीसंगत्याग ब्रह्मचर्यमहाव्रती साधु के लिए समादिष्ट