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संयम है । द्वितीय श्रु तस्कन्ध को आचाराग्र कहा गया है। यह आचाराग्र पाँच चूलाओं में विभक्त था । पाँचवी चूला जिसका नाम आज निशीथ है तथा नियुक्तिकार ने जिसे आचार-प्रकल्प कहा है, वह आचारांग से पृथक हो गया। यह पृथक्करण कब हुआ, अभी इसकी पूरी खोज नहीं हो सकी है । आचारांग में अथ से इति तक आचार धर्म का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । जैन परम्परा का यह मूल-भूत आचार-शास्त्र है । दिगम्बर परम्परा का आचार्य वट्ट-केरकृत 'मूलाचार' आचारांग के आधार पर ही निर्मित हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है।
सूत्रकृतांग सूत्र जो एकादश अंगों में द्वितीय अंग है, उसमें विचार की मुख्यता है। भगवान् महावीरकालीन भारत के जो अन्य विभिन्न दार्शनिक मत थे उन सबके विचारों का खण्डन करके अपने सिद्धान्त पक्ष की स्थापना की है। सूत्रकृतांग जैन परम्परा में प्राचीन आगमों में एक महान् आगम है। इसमें नव दीक्षित श्रमणों को संयम में स्थिर रखने के लिये और उनके विचार पक्ष को शुद्ध करने के लिये जैन सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन है । आधुनिक काल के अध्येता को, जिसे अपने देश का प्राचीन बौद्धिक विचार-दर्शन जानने की उत्सुकता हो, जैन तथा अजैन दर्शन को समझने की दृष्टि हो, उसे इसमें बहुत कुछ उपलब्ध हो सकता है। प्रस्तुत आगम में जीव, अजीव, लोक, अलोक, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष का विस्तृत विवेचन हुआ है।
सूत्रकृतांग के भी दो श्रु तस्कन्ध हैं-दोनों में ही दार्शनिक विचार चर्चा है। प्राचीन ज्ञान के तत्वाभ्यासी के लिए सूत्रकृतांग में वणित अजैन सिद्धान्त भी रोचक तथा ज्ञानवर्द्धक सिद्ध होंगे । जिस प्रकार की चर्चा प्राचीन उपनिषदों में प्राप्त होती है, उसी प्रकार की विचारणा सूत्रकृतांग में उपलब्ध होती है । बौद्ध परम्परा के त्रिपिटक-साहित्य में इसकी तुलना ब्रह्मजाल सूत्र से की जा सकती है । ब्रह्मजाल सूत्र में भी बुद्धकालीन अन्य दार्शनिकों का पूर्व पक्ष के रूप में उल्लेख करके अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इसी प्रकार की शैली जैन परम्परा के गणिपिटक में सूत्रकृतांग की रही है। भगवान महावीर के पूर्व तथा भगवान् महावीरकालीन भारत के सभी दर्शनों का विचार यदि एक ही आगम से जानना हो तो वह सूत्रकृतांग से ही हो सकता है। अतः जैन परम्परा में सूत्रकृतांग एक प्रकार से दार्शनिक विचारों का गणिपिटक है।
आगमों का व्याख्या साहित्य मूल ग्रन्थ के रहस्योद्घाटन के लिये उसकी विविध व्याख्याओं का अध्ययन अनिवार्य नहीं तो भी आवश्यक तो है ही । जब तक किसी ग्रन्थ की प्रामाणिक व्याख्या का सूक्ष्म अवलोकन नहीं किया जाता तब तक उस ग्रन्थ में रही हुई अनेक महत्वपूर्ण बातें अज्ञात ही रह जाती हैं। यह सिद्धान्त जितना वर्तमान कालीन भौतिक ग्रन्थों पर लाग होता है उससे कई गुना अधिक प्राचीन भारतीय साहित्य पर लागू होता है। मूल ग्रन्थ के रहस्य का उद्घाटन करने के लिये उस पर व्याख्यात्मक साहित्य का निर्माण करना भारतीय ग्रन्थकारों की बहुत पुरानी परम्परा है। इस प्रकार के साहित्य से दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं-व्याख्याकार को अपनी लेखनी से ग्रन्थकार के अपने अभीष्ट अर्थ का विश्लेषण करने में असीम आत्मोल्लास होता है तथा कहीं-कहीं उसे अपनी मान्यता प्रस्तुत करने का अवसर भी मिलता है । दूसरी ओर पाठक को ग्रन्थ के गूढार्थ तक पहुँचने के लिये अनावश्यक श्रम नहीं करना पड़ता । इस प्रकार व्याख्याकार का परिश्रम स्व-पर उभय के लिये उपयोगी सिद्ध होता है । व्याख्याकार को आत्मतुष्टि के साथ ही साथ जिज्ञासुओं की ज्ञान-पिपासा भी शान्त होती है । इसी पवित्र भावना से भारतीय व्याख्या ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। जैन व्याख्याकारों के हृदय भी इसी भावना से भावित रहे हैं ।
प्राचीनतम जैन व्याख्यात्मक साहित्य में आगमिक व्याख्याओं का अति महत्वपूर्ण स्थान है। इन व्याख्याओं को हम पाँच कोटियों में विभक्त करते हैं ।-१. नियुक्तियाँ (निज्जुत्ति), २. भाष्य (भास), ३ चूणियाँ (चुण्णि), ४. संस्कृत टीकाएँ और ५. लोक भाषाओं में रचित व्याख्याएँ (टव्वा)। आगमों के विषयों का संक्षेप में परिचय देने वाली