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प्रथम उद्देशक : गाथा २४७ से २७७
२६१ पर से दृष्टि हटा ले । प्रयोजनवश कदाचित् स्त्री की ओर देखना पड़े तो इसके लिए वृत्तिकार कहते हैं
"कार्येऽपीषन् मतिमान् निरीक्षते योषिदंगमस्थिरया ।
अस्निग्धतया दशाऽवज्ञया ह्यकुपितोऽपि कुपित इव ॥" अथात्-जरूरत पड़ने पर बुद्धिमान साधक स्त्री के अंग की ओर जरा-सी अस्थिर (उड़ती) अस्निग्ध, सूखी एवं अवज्ञापूर्ण दृष्टि से देखे, ताकि अकुपित होते हुए भी बाहर से कुपित-सा प्रतीत हो ।
तात्पर्य यह है कि साधक टकटकी लगाकर, दृष्टि जमाकर स्त्री के रूप, लावण्य एवं अंगों को न देखे । यही बात स्त्रीजन्य उपसर्ग से बचने के लिए शास्त्रकार कहते हैं-'नो तासु चक्खु संघेज्जा' ।
चौथी प्रेरणा-कई कामुक ललनाएँ साधु को आश्वस्त-विश्वस्त करके उसे वचनबद्ध कर लेती हैं। भोलाभाला साध उनके मायाजाल में फँस जाता है। शास्त्रकार पहले से ही ऐसे अवसर पर सावधान रहने की प्रेरणा देते हैं- 'नो वि य साहसं समभिजाणे' । इसका आशय यह है कि साधु किसी भी मूल्य पर स्त्री के साथ अनाचार सेवन करने का साहसिक कुकर्म करना स्वीकार न करे, ऐसा कुकर्म करने के लिए हर्गिज वचनबद्ध न हो, क्योंकि नरक-गमन, इहलोक-निन्दा, भयंकर दण्ड आदि कुशीलसेवन के दुष्परिणामों का ज्ञाता साधु यह भलीभांति समझ ले कि स्त्री के साथ समागम करना युद्ध में उतरने के समान जोखिम भरा दुःसाहस का कार्य है।
पांचवी प्रेरणा-स्त्रीजन्य उपसर्ग से शीलभ्रष्ट होने का खतरा निम्नोक्त कारणों से भी है-(१) स्त्रियों के साथ ग्राम, नगर आदि विहार करने से. (२) उनके साथ अधिक देर तक या एकान्त में बैठनेउठने, वार्तालाप करने आदि से । इसीलिए शास्त्रकार इस खतरे से सावधान रहने की प्रेरणा देते हैं'नो सद्धियं पि विहरेज्जा' । 'विहार' से केवल भ्रमण या गमन ही नहीं, साथ-साथ उठना-बैठना, क्रीड़ा करना (खेलना) आदि क्रियाएँ भी सूचित होती हैं । शास्त्रकार का तात्पर्य यह भी प्रतीत होता है कि स्त्रीसंसर्गों को हर हालत में टालने का प्रयत्न करना चाहिए।
छठी प्रेरणा-स्त्रीजन्य उपसर्ग केवल स्त्री के द्वारा दिये गए प्रलोभनों आदि से ही नहीं होता, कभी-कभी दुर्बलमनाः साध स्वयं किसी स्त्री को देखकर, पूर्वभूक्त कामभोगों का स्मरण करके या स्वयं
सी स्त्री का चिन्तन करके अथवा किसी स्त्री को लुभाकर फंसाने से भी होता है। ऐसी स्थिति में, जबकि साधु स्वयमेव विचलित हो रहा हो, कौन उसे उबार सकता है ? शास्त्रकार इसका समाधान देते है-'एवमप्पा सुरक्खिओ होइ ।' इसका आशय यह है कि ये (पूर्वोक्त) और इनके समान अन्य कई प्रकार के कामोत्तेजक या शीलनाशक खतरे हैं, जिनसे साधु को स्वयं बचना चाहिए । आत्महितैषी साधक को स्वयं अपनी आत्मा की सुरक्षा करनी चाहिए। साधक की आत्मा स्वयमेव ही इस प्रकार से सुरक्षित हो सकती है।
३. 'चित्तभित्ति न निज्झाए नारि वा सु अलंकियं । भक्खरं पिव दळूणं, दिठिं पडिसमाहरे॥'-दशवकालिक अ०८, गा० ५५