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सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा
व्युत्सर्ग-त्याग करे, यानी दांत कुरेदने के लिए तिनका भी बिना दिया हुआ, ग्रहण न करे।' वृत्तिकार यहाँ 'आदि' शब्द मानकर अर्थ करते हैं-'आविग्रहणान्मैथुनादेः परिग्रहः' आदि शब्द यहाँ (मूलपाठ में) ग्रहण किया गया है, इसलिए मैथुन आदि का ग्रहण करना अभीष्ट है। चूर्णिकार तो 'विवज्जेज अदिग्णादि च वोसिरे-पाठान्तर मानकर उपर्युक्त अर्थ स्वीकार करते हैं । 'सव्वत्य विरतिं कुज्जा'=वृत्तिकार के अनुसार-सर्वत्र-काले, सविस्थास्वित्यनेनाऽपि कालमावभेदभिन्नः प्राणातिपात उपात्तो द्रष्टव्यः-अर्थात् सव्वत्थ का अर्थ है-सर्वत्र यानी सब काल में, सभी अवस्थाओं में प्राणातिपात नहीं करना चाहिए, यह कहकर शास्त्रकार ने काल और भाव रूप से प्राणातिपात का ग्रहण किया दिखता है।' चर्णिकार इसके बदले 'सम्वत्थ विरति विज्ज' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते है-'सम्वत्य-सर्वत्र विज्ज-विद्वान, सर्वत्रविरति --सर्वविरति विद्वान् 'कुर्याद' इति वाक्यशेष. -अर्थात विज्ज=विद्वान् सर्वत्र अथवा सर्वत्रविरति-सर्वविरति, 'कुर्याद्' यह वाक्य शेष है, अर्थ होता है-करे। समाहिते-समाधि प्राप्त । 33
चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ उपसर्ग परिज्ञा : तृतीय अध्ययन सम्पूर्ण ।।
३३ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १००, १०१ का सार
(ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि.) पृ० ४३, ४४