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________________ २४४ सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन- उपसर्गपरिज्ञा प्राणी हैं, उनकी हिंसा किसी भी अवस्था में मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से नहीं करनी चाहिए। आठवाँ कदम-उपसर्ग-विजय के लिए साधक को सतत तपश्चर्या का अभ्यास हना चाहिए, ताकि वह स्वकृत कर्मों की आग को शान्त कर सके । भगवान् ने कर्माग्नि की शान्ति को ही निर्वाण प्राप्ति का कारण बताया है-'संति निवाणमाहिये। इसलिए उपसर्ग-विजयी के लिए कर्मरूप अनल की शान्ति को आठवां कदम बताया गया है। ___ नौवाँ कदम-उपसर्ग-विजय के लिए भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित श्रुत-चारित्र रूप, मूलगुणउत्तरगुण रूप या क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म को दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना आवश्यक है। यहाँ क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म के स्वीकार का संकेत प्रतीत होता है, क्योंकि उपसर्ग-विजय के लिए क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दस धर्मों का साधु जीवन में होना अनिवार्य है। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-'इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेदितं ।' वसा कदम-उपसर्ग-विजय के लिए अग्लान साधक को ग्लान (रुग्ण, अशक्त, वृद्ध आदि) साधु की परिचर्या (सेवा) अग्लान भाव से करना आवश्यक है । ग्लान साधु की सेवा करने में वह बेचैनी ग्लानि या झुंझलाहट अनुभव न करे, प्रसन्नमन से, स्वय को धन्य एवं कृतकृत्य मानता हुआ सेवा करे, तभी वह ग्लान-सेवा कर्म-निर्जरा का कारण बनेगी। ग्लान-सेवा का अवसर प्राप्त होने पर उससे जी चुराना, मुख मोड़ना या बेचैनी अनुभव करना, एक प्रकार का अरति परीषह रूप उपसर्ग है। ऐसा करना साधक की उक्त उपसर्ग से पराजय है । इसीलिए कहा गया- "कुन्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए समाहिए।" ग्यारहवाँ कदम-उपसर्ग-विजयी के लिए यह भी आवश्यक है कि उस धर्म को भली-भाँति परख ले पहिचान ले, जो मुक्ति प्रदान करने में (कर्मों से मुक्ति दिलाने में) कुशल हो। संसार में अनेक प्रकार के नित्य और नैमित्तिक धर्म प्रचलित हैं। कई दर्शन या मत तो अमुक कामना-वासनामूलक बातों को भी धर्मसंज्ञा देते हैं, कई अमुक (तथाकथित स्वमान्य) शास्त्रविहित कर्मकाण्डो र ही धर्म बताते हैं, उसी के एक-एक अंग को मुक्ति का कारण बताते हैं, जबकि जैनदर्शन यह कहता है जिससे शुभ कर्म की वृद्धि हो, ऐसे सत्कर्म धर्म नही, पुण्य हैं। धर्म वही है-जिससे कर्मों का निरोध या कर्मक्षय होता हो। इस दृष्टि से न तो सिर्फ ज्ञान ही मोक्ष का कारण है, और न ही एकान्त चारित्र (क्रिया), किन्तु सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र तीनों मिलकर ही मोक्ष के कारण हैं, ये तीनों ही जहाँ हो, वहीं धर्म है। अगर साधक धर्म को पहिचानने-परखने के मामले में गड़बड़ा जाएगा तो वह धर्म के नाम से धर्मभ्रम (पशुबलि. काम-प्रार्थी नारी समागम, कामनामुलक क्रियाकाण्ड आदि को पकड़कर उपसर्गों की चपेट में आ जाएगा। इसीलिए उपसर्ग-विजय के लिए ग्यारहवाँ कदम बताया गया है-संखाय पेसलं धम्म । बारहवाँ कदम-अगर साधक मिथ्या या विपरीत दृष्टि (दर्शन) से ग्रस्त हो जाएगा तो वह फिर अनुकूल उपसर्गों के चक्कर में आ जाएगा। इसलिए उपसर्ग-विजयी बनने हेतु साधक का सम्यग्दृष्टि मा परम आवश्यक बताया गया है। सम्यग्दृष्टिसम्पन्न होने पर साधक व्यवहार में सुदेव,
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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