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________________ , २३६ . चतुर्थ उद्देशक : गाथा २४० से २४१ होकर वैषयिक सुखों में और कामजनित सुखों में संलग्न हो जाते हैं, उक्त सुखों की पूर्ति के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, बेईमानी, टगी, कामासक्ति और परिग्रह आदि दुष्कर्मों को निःसंकोच होकर करते हैं। उन दुष्कर्मों को करते समय भविष्य में उनके दुष्परिणाम के रूप में नरक एवं तिर्यञ्च में मिलने वाली यातनाओं का कोई विचार नहीं करते। जिनकी दृष्टि केवल वर्तमान के क्षणिक वैषयिक एवं कामजन्य सुखों की प्राप्ति में टिकी रहती है। काम-भोगों के सेवन से जब सारा शरीर जर्जर हो जाता है, शक्तिक्षीण हो जाती है, कोई न कोई रोग आकर घेर लेता है, इन्द्रियाँ काम करने से जवाब दे देती हैं, यौवन ढल जाता है, बुढ़ापा आकर झांकने लगता है, मृत्यु द्वार पर दस्तक देने लगती है, तब वे अत्यन्त पछताते हैं- अपसोस ! हमने अपना बहमुत्य जीवन यों ही बर्बाद कर दिया, कुछ भी धर्माचरण न कर सका, संसार की मोहमाया में उलझा रहा, साधुवेष धारण करके भी लोकवंचना की। एक जैनाचार्य ने उनके पश्चात्ताप को इन शब्दों में व्यक्त किया है-"मैंने मनुष्य जन्म पाकर अच्छे कामों को नहीं अपनाया-सदाचरण नहीं किया, यों मुट्टियों से आकाश को पीटता रहा और चावलों का भुस्सा कूटता रहा। "वास्तव में वैभव के नशे में, यौवन के मद में जो कार्य नहीं करने चाहिए, वे किये। किन्तु जब उम्र ढल जाती है और वे अकृत्य याद आते हैं, तब हृदय में वे कांटे-से खटकने लगते हैं।' इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं-'अणागयमपस्संता खोणे आउम्मिजोठवणे । किन्तु जो विवेक सम्पन्न पुरुष समय पर पराक्रम करते हैं, धर्म पुरुषार्थ को मुख्य रखकर प्रवृत्ति करते हैं, एक क्षण भी धर्म रहित होकर असंयम या अधर्म में नहीं खोते, जो विघ्न बाधाएँ, विपत्तियाँ आने पर भी धर्माचरण नहीं छोड़ते, धैर्यपूर्वक परीषह-उपसर्ग को सहन करते हैं, इहलौकिक, पारलौकिक काम-भोगों या विषय सुखों की वांछा नहीं करते, स्नेहबन्धन में फँसाने के चाहे जितने अनुकूल उपसर्ग हो, वे स्नेहबन्धन से उन्मुक्त रहते हैं, वे असंयमी जीवन जीने की वांछा कदापि नहीं करते इसीलिए वे कर्म. विदारण करने में समर्थ धीर रहकर तपस्या में रत रहते हैं। ऐसे जीवन-मरण से निःस्पृह संयमानुष्ठान में दत्तचित्त पुरुष यौवन पार होने के बाद बुढ़ापे में पश्चात्ताप नहीं करते । इसे हो शास्त्रकार कहते हैं-जेहि काले "नावकखंति जीवियं । नारी-संयोग रूप, उपसर्ग : दुस्कर, दुष्तर एवं सुतर ! २४०. जहा नदी वेयरणी दुत्तरा इह सम्मता। एवं लोगंसि नारीओ दुत्तरा अमतीमता ॥ १६ ॥ २६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ६६ पर से (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ४६२ से ४६४ तक (ग) "हतं मुष्टिभिराकाशं, तुषाणां कण्डनं कृतम् । यन्मया प्राप्य मानुष्यं, सदर्थे नादरः कृतः ॥" "विहवावलेवन डिएहिं जाई कीरंति जोवण मएणं । वयपरिणामे सरियाई ताई हिअए खुडुक्कंति ॥" (घ)
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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