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________________ ( २४ ) सकता है।' बन्धन का विचार करने मात्र से बन्ध से छुटकारा नहीं मिलता है । छुटकारा पाने के लिए बन्ध का और आत्मा का स्वभाव भली-भांति समझ कर बन्ध से विरक्त होना चाहिए । जीव और बन्ध के अलग-अलग लक्षण समझ कर प्रज्ञा रूपी धुरी से उन्हें अलग करना चाहिए, तभी बन्ध छूटता है । बन्ध को छेदकर आत्म-स्वरूप में स्थित होना चाहिए। आत्म-स्वरूप को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए? इसके उत्तर में कहा गया है, कि मुमुक्ष को आत्मा का इस प्रकार विचार करना चाहिए-'मैं चेतन स्वरूप हूँ, मैं दृष्टा है, मैं ज्ञाता हूँ शेष जो कुछ भी है, वह मुझसे भिन्न है। शुद्ध आत्मा को समझने वाला व्यक्ति समस्त पर-भावों को परकीय जानकर उनसे अलग हो जाता है। यह परभाव से अलग हो जाना ही वास्तविक मोक्ष है।"२ इस प्रकार जैन-दर्शन में मोक्ष के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। सांख्य-दर्शन मोक्ष को प्रकृति और पुरुष का विवेक मानता है । विवेक एक प्रकार का वेदज्ञान है। इसके विपरीत बन्ध प्रकृति और पुरुष का अविवेक है। पुरुष नित्य और मुक्त है। अपने अविवेक के कारण वह प्रकृति और उसके विकारों से अपना तादात्म्य मान लेता है। शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार ये सब प्रकृति के विकार हैं । लेकिन अविवेक के कारण पुरुष इन्हें अपना समझ बैठता है । मोक्ष पुरुष की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति है। बन्ध एक प्रतीति मात्र है और इसका कारण अविवेक है। योग दर्शन मोक्ष को आत्मा का कैवल्य मानता है। कैवल्य आत्मा के प्रकृति के जाल से छूट जाने की एक अवस्था विशेष है । आत्मा को इस अवस्था की प्राप्ति तब होती है, जब तप और संयम के द्वारा मन से सब कर्म-संस्कार निकल जाते हैं । सांख्य और योग मोक्ष में पुरुष की चिन्हमात्र अवस्थिति मानते हैं । इस अवस्था में वह सुख और दुःख से सर्वथा अतीत हो जाता है। क्योंकि सुख और दुःख तो बुद्धि की वृत्तियाँ मात्र हैं । इन वृत्तियों का आत्यन्तिक अभाव ही सांख्य और योग दर्शन में मुक्ति है। न्याय और वैशेषिक-दर्शन मोक्ष को आत्मा की वह अवस्था मानते हैं, जिसमें वह मन और शरीर से अत्यन्त विमुक्त हो जाता है और सत्ता मात्र रह जाता है । मोक्ष आत्मा की अचेतन अवस्था है, क्योंकि चैतन्य तो उसका एक आगन्तुक धर्म है, स्वरूप नहीं । आत्मा का शरीर और मन से संयोग होने पर उसमें चैतन्य का उदय होता है। अतः मोक्ष की अवस्था में इनसे वियोग होने पर चैतन्य भी चला जाता है । मोक्ष की प्राप्ति तत्व-ज्ञान से होती है यह दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था है। मीमांसा-दर्शन में भी मोक्ष को आत्मा की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति माना गया है जिसमें सुख और दुःख का अत्यन्त विनाश हो जाता है । अपनी स्वाभाविक अवस्था में आत्मा अचेतन होता है। मोक्ष दु:ख के आत्यन्तिक अभाव की अवस्था है । लेकिन इसमें आनन्द की अनुभूति नहीं होती। आत्मा स्वभावतः सुख और दुःख से अतीत है। मोक्ष की अवस्था में ज्ञान-शक्ति तो रहती है, लेकिन ज्ञान नहीं रहता। अद्वैत वेदान्त मोक्ष को जीवात्मा और ब्रह्म के एकीभाव की उपलब्धि मानता है। क्योंकि परमार्थतः आत्मा ब्रह्म ही है। आत्मा विशुद्ध, सत्, चित और आनन्द स्वरूप है। बन्ध मिथ्या है । अविद्या एवं माया ही इसका कारण है। आत्मा अविद्या के कारण शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार के साथ अपना तादात्म्य कर लेता है, जो वस्तुतः माया निर्मित है। वेदान्त दर्शन के अनुसार यही मिथ्या तादात्म्य बन्ध का कारण है। अविद्या से आत्मा का बन्धन होता है और विद्या से इस बन्धन की मुक्ति होती है। मोक्ष आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है। यह न चैतन्य रहित अवस्था है, और न दुःखाभाव मात्र की अवस्था है, बल्कि सचित् और आनन्द की ब्रह्म-अवस्था है।' ब्रह्मभाव की प्राप्ति है। इस प्रकार मोक्ष की धारणा समस्त भारतीय-दर्शनों में उपलब्ध होती है । वास्तव में मोक्ष की १-समयसार, २८८-६३. २-समयसार, २६४-३००.
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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