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सूत्रकृतांग - तृतीय अध्ययन - -उपसर्गपरिज्ञा
२१२. (उपकार्य-उपकारक रूप से -- ) सम्बद्ध गृहस्थ के समान व्यवहार ( अनुष्ठान) वाले आप लोग परस्पर (एक दूसरे में ) मूच्छित (आसक्त) हैं! क्योंकि आप रुग्ण (ग्लान साधु) के लिए भोजन लाते और देते हैं ।
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२१३. इस प्रकार (परस्पर उपकार के कारण ) आप सराग ( स्वजनों के प्रति रागी) और एक दूसरे के वश में रहते हैं । अतः आप सत्पथ ( सन्मार्ग) और सद्भाव ( परमार्थ ) से भ्रष्ट (दूर) हैं, तथा संसार (चतुर्गतिक भ्रमणरूप संसार) के पारगामी नहीं हो सकते ।
विवेचन – स्वसंवेदनरूप उपसर्ग - परवाबिकृत आक्षेप के रूप में प्रस्तुत सूत्रगाथात्रय ( २११ से २१३ तक) में अन्य दर्शनियों द्वारा सुविहित साधुओं पर किये जाने वाले मिथ्या आक्षेपों का वर्णन है ।
यद्यपि इन मिथ्या आक्षेपों का सम्यग्दृष्टि एवं मोक्षविशारद, तत्त्व-चिन्तक साधुओं के मन पर कोई असर नहीं होता, किन्तु जो साधक अभी तक सिद्धान्तनिष्ठ, तत्त्वज्ञ एवं साध्वाचारदृढ़ नहीं है, उनका चित्त उक्त आक्षेपों को सुनकर संशयग्रस्त या कषायोत्तेजनाग्रस्त हो सकता है, इस कारण ऐसे आक्षेपवचनों को उपसर्ग माना गया है । शास्त्रकार ऐसे आत्मसंवेदनरूप उपसर्ग की सम्भावना होने पर साधु को अपना मन समाधिस्थ रखने हेतु संकेत करते हैं - तमेगे परिभासन्ति अन्तर से समाहिए' आशय यह है कि जो साधुताजीवी भिक्षुओं पर ऐसा मिथ्या आक्षेप करते हैं, ज्ञानादि से मोक्षरूप अथवा कषाय की उपशान्ति रूप समाधि से दूर हैं, अर्थात् — वे बेचारे असमाधि में हैं, सांसारिक भ्रमणा में हैं । शास्त्रकार का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि ऐसे मिथ्या आक्षेपवादियों के द्वारा किये गये असत् आक्षेपों को सुनकर सुविहित साधु को न तो उत्तेजित होकर अपनी चित्त समाधि भंग करनी चाहिए और न उनके मिथ्या-आक्षेपों को सुनकर, क्षुब्ध होना चाहिए, अर्थात् स्वयं को समाधि से दूर नहीं करना चाहिए, ज्ञान-दर्शन- चारित्र रूप समाधि में स्थिर रहना चाहिए ।
वृत्तिकार और चूर्णिकार 'एगे' शब्द की व्याख्या करते हुए इन आक्षेपकों को गोशालक मतानुसारी आजीवक या दिगम्बर परम्परा के भिक्षु बताते हैं, वृत्तिकार आगे कहते हैं - उत्तम साधु यह तटस्थ ( राग-द्वेष-पक्षपात रहित) चिन्तन करे कि ये जो साध्वाचार की निन्दा या आलोचना करते हैं, या आक्षेपात्मक वचन बोलते हैं, उनका धर्म पुष्ट- सुदृढ़ नहीं है, तथा वे समाधि से दूर हैं । वे परस्पर उपकार से रहित दर्शन (दृष्टि) से युक्त हैं, लोहे की सलाइयों की तरह परस्पर मिलते नहीं, दूर-दूर अलग अलग रहते हैं । पृथक्-पृथक् विचरण करते हैं ।
तात्पर्य यह है कि उत्तम साध्वाचार परायण एवं वीतरागता का पथिक साधु उन निन्दकों या आलोचकों के प्रति तरस खाएँ, भड़के नहीं; उनकी आक्षेपात्मक बातों पर कोई ध्यान न दे, मोक्षमार्ग पर अबाध गति से चलता रहे । हाँ, अपने संयमाचरण में कोई त्रुटि या भूल हो तो उसे अवश्य सुधार ले, उसमें अवश्य सावधानी रखे । यही इस गाथा द्वारा शास्त्रकार ने ध्वनित किया है ।
आक्षेप कितने और किस प्रकार के ? उत्तम साधुओं पर लगाये जाने वाले मिथ्या आक्षेपों के कुछ नमूने यहाँ शास्त्रकार ने प्रस्तुत किये हैं, वैसे उनकी कोई निश्चित गणना नहीं की जा सकती, ऐसे और आक्षेप भी अन्य आक्षेपकों द्वारा किये जा सकते हैं ।