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________________ २०८ सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा . विवेचन-आत्मसंवेदनरूप उपसर्ग : प्रस्तुत पांच सूत्रगाथाओं (२०४ से २०८ तक) में संयमपालन में अल्पसत्व कायर साधक के मन में होने वाले भय, कुशंका और अस्वस्थ चिन्तन का निरूपण कायर योद्धा के साथ तुलना करते हुए किया गया है। युद्ध के समय कायर पुरुष के चिन्तन के विविध पहलू-जब रणभेरी बजती है, युद्ध प्रारम्भ होता है, तब युद्ध विद्या में अकुशल, मनोर्बल, कायर योद्धा सोचता है-(१) पता नहीं इस युद्ध में किसको हार या जीत होगी ? (२) युद्ध क्षेत्र में शत्रुपक्ष के बड़े-बड़े योद्धा उपस्थित हैं, दुर्भाग्य से हार हो गई तो फिर प्राण बचाने मुश्किल होंगे, अतः पहले से ही भाग कर छिपने का स्थान ढूंढ़ लेना चाहिए। (३) वह स्थान इतना गहरा तथा वेलों और झाड़ियों से कमर तक ढका हुआ होना चाहिए कि शत्रु पीछा न कर सके, न पता लगा सके । (४) पता नहीं युद्ध कितने लम्बे समय तक चले, (५) इतने लम्बे काल तक युद्ध चलने के बाद भी विजय या पराजय की घड़ो तो एक ही बार आएगी। (६) उस घड़ी में हम शत्रु से हार खा गये तो फिर कहीं के न रहेंगे। अतः पहले से ही भाग कर छिपने का गुप्त स्थान ढूंढ लेना अच्छा है।" संयम-पालन में कायर, संशयशील एवं मनोदुर्बल साधकों का चिन्तन-संयम पालन में उपस्थित होने वाले परिषह-उपसर्गरूप शत्रुओं से जीवन के अन्त तक जूझना और उन पर विजय पाना भी संशयशील मनोदुर्बल एवं कायर साधकों के लिए अत्यन्त कठिन होता है, इसलिए ऐसे नाजुक साधक कोई भी परीषह और उपसर्ग उपस्थित न हो तो भी मन से इनकी कल्पना करके स्वयं को भारी विपत्ति में फंसा हुआ मान लते हैं। वे संमय को भारभूत समझते हैं, और कायर योद्धा की तरह उन जरा-जरासी कठिनाइयों से बचने तथा संयममार्ग से पराजित होने पर अपने जीवन को बचाने और जीवनयापन करने के संयम विघातक तरीके सोच लेते हैं। उनके अस्वस्थ चिन्तन के ये पहलू हैं-(१) यहाँ रूखासूखा और ठन्डा आहार मिलता है। सो भी भोजन का समय बीत जाने पर, और वह भी नीरस । प्रव्रजित साधक को भूमि पर सोना पड़ता है। फिर लोच करना, स्नान न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना इत्यादि संयमाचरण कितना कठोर और कठिन है ! और फिर इस प्रकार कठोर संयमपालन एक-दो दिन या वर्ष तक नहीं, जीवन भर करना है। यह मुझसे सुकोमल, सुकुमार और आराम से पले हए व्यक्ति से कैसे हो सकेगा? हाय ! मैं तो इस बन्धन में फंस गया ! (२) जीवन भर चारित्रपालन में अब मैं असमर्थ हूँ। अतः संयमत्याग करना ही मेरे लिए ठीक है। परन्तु संयम त्याग करने से सर्वप्रथम मेरे समक्ष जीविका का संकट उपस्थित होगा, जीविका का कोई न कोई साधन हुए विना मैं सुख से कैसे जी सकूँगा ? (३) इस संकट से बचने तथा सुख से जीवनयापन करने के लिए मैं अपनी सीखी हुई गणित, ज्योतिष, वैद्यक. व्याकरण और होराशास्त्र आदि विद्याओं का उपयोग करूंगा। (४) ओ हो ! मैं बहुत दूर चला गया। यह कौन जानता है कि संयम से पतन स्त्री-सेवन से या सचित्त (कच्चे) पानी के उपयोग से ? या और किसी उपसर्ग से होगा ! (५) फिर पता नहीं, मैं किस उपसर्ग से, कब संयम से भ्रष्ट हो जाऊँ ? (६) मान, लो मैं संयम से भ्रष्ट हो गया तो फिर तो मैं घर का रहा, न घाट का ! मेरे पास पहले का कमाया हुआ कोई धन भी नहीं है, बड़ी समस्या खड़ी होगी, मेरे सामने। (७) कोई पूछेगा कि संयमत्याग करने के बाद आप क्या करेंगे, कैसे जीयेंगे? तो हम झूठ-मूठ यहीं कहेंगे कि हमारे पास हस्तिविद्या, धनुर्वेद आदि विद्याएँ हैं, उन्हीं का उपयोग हम करेंगे ! (८) कभी वह सहसा संशयशील
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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