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द्वितीय उद्देशक : गाथा १८३ से १९५
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१८७. आओ, तात ! घर चलें। (अब से) तुम कोई काम मत करना, हम लोग तुम्हारे काम में सहायक होंगे । हे तात ! (अब) दूसरी बार (चलो) (तुम्हारा काम) हम देखेंगे। अतः चलो, हम लोग अपने घर चलें।
१८८. हे तात ! (अच्छा) एक बार घर जा कर फिर लौट आना। (इससे तुम) अश्रमण नहीं हो जाओगे। (घर के काम में) तुम इच्छारहित (अनिच्छुक) हो तो तुम्हें स्वेच्छानुसार कार्य करने से कौन रोक सकता है ?
१८६. हे तात ! जो कुछ ऋण था, वह भी सारा का सारा हमने बराबर (समभाग में) बाँटकर ठीक कर (उतार) दिया है । तुम्हारे व्यवहार आदि के लिए उपयोगी जो हिरण्य (सोना-चाँदी आदि) है, वह भी हम लोग तुम्हें देंगे।
१६०. करुणाजनक वचनों से (साधक को फुसलाने हेतु) भलीभांति उद्यत (कटिबद्ध) बन्धु-बान्धव इसी प्रकार साधू को शिक्षा देते हैं (बरगलाते हैं।) (ऐसी स्थिति में) ज्ञातिजनों के संगों-सम्बन्धों से विशेष रूप से (स्नेह बन्धन में) बंधा (जकड़ा) हुआ साधक उस निमित्त (बहाने) से घर की और चल पड़ता है।
१६१. जैसे वन में उत्पन्न वृक्ष के लता (लिपट कर) बांध लेती है, इसी तरह ज्ञातिजन (स्वजन) (साधक के चित्त में) असमाधि उत्पन्न (समाधिभंग) करके (उसे) बांध लेते हैं ।
१९२. (माता-पिता आदि) स्वजनवर्ग के स्नेह सम्बन्धों से बंधे हुए साधु के पीछे-पीछे (स्वजन वर्ग) चलते हैं और नये-नये पकड़े हए हाथी के समान (उसके अनुकल चलते हैं)। तथा जैसे नई ब्याई हुई गाय अपने बछड़े के पास रहती है, वैसे पारिवारिक जन भी उसके पास ही रहते हैं।
१९३, ये (माता-पिता आदि स्वजनों के प्रति) संग (स्नेह सम्बन्ध रूप उपसर्ग) मनुष्यों के लिए समुद्र के समान अतल और दुस्तर हैं। इस प्रकार उपसर्ग के आने पर ज्ञातिजनों के संग (सम्बन्ध) में मूच्छित-आसक्त होकर अल्प पराक्रमी साधक क्लेश पाते हैं।
१९४. भिक्षु उस ज्ञातिजन सम्बन्धरूप उपसर्ग को भलीभांति जान कर छोड़ देता है। क्योंकि सभी संग (आसक्तियुक्त सम्बन्ध) कर्म के महान् आस्रव द्वार हैं । अनुत्तर (वीतरागप्ररूपित) धर्म का श्रवण करके साधु असंयमी जीवन की आकांक्षा न करे।
१६५. इसके अनन्तर काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर ने विशेषरूप से बता दिया कि ये संग (जातिजनों के साथ स्नेहसम्बन्ध) आवर्त (भंवरजाल या चक्कर) हैं। जिस उपसर्ग के आने पर प्रबुद्ध (तत्त्वज्ञ) पुरुष इनसे शीघ्र ही अलग (दूर) हट जाते हैं, जबकि अदूरदर्शी विवेकमूढ़ इनमें फंसकर दुःख पाते हैं।
विवेचन-स्वजनसंगरूप उपसर्गः कैसे-कैसे, किस-किस रूप में ? इन (१८३ से १६५ तक १३ सूत्रगाथाओं ज्ञातिजन-संग रूप अनुकूल उपसर्ग का विविध पहलुओं से वर्णन किया गया है । ज्ञातिजनों द्वारा आसक्ति मय वचनों से साधक को फुसलाने के सात मुख्य प्रकारों का यहां वर्णन है-(१) सम्बन्धीजन रो-रो