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________________ १९२ . सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिक्षा विवेचन-दंश-मशक परीषह और तणस्पर्श परीषह के रूप में उपसर्ग : कायर साधक का दुश्चिन्तनप्रस्तुत सूत्र में दो परीषहों के रूप में उपसर्गों का निरूपण करते हुए कायर एवं मनोदुर्बल साधक का दुश्चिन्तन अभिव्यक्त किया है-पुट्ठोय तणफासमचाइया । न मे दि8"परं मरणं सिया।' इसका आशय यह है कि साधू प्रायः सभी प्रान्तों-प्रदेशों में विचरण करता है। कोंकण आदि देशों में साधु को बहत डांसमच्छरों से पाला पड़ता है। वे साधु के तन पर सहसा टूट पड़ते हैं, साथ ही घास की शय्या पर जब नवदीक्षित साधु सोता है तो उसका खुर्दरा स्पर्श चुभता है। इस प्रकार डांस-मच्छरों के उपद्रव तथा तृण स्पर्श के कारण उपसर्ग सहन में अनभ्यस्त नवदीक्षित साधु एकदम झुझला उठता है। वह प्रायः ऐसा सोचता है कि आखिरकार मैं यह सब कष्ट क्यों सहन कर रहा हूँ ? व्यर्थ ही कष्ट में अपने को क्यों डालू ? कष्ट सहन तो तभी सार्थक हो, जबकि परलोक हो, न तो मैंने परलोक को देखा है और न ही परलोक से लौटकर कोई मुझे वहाँ की बातें बताने आया है। प्रत्यक्ष से जब परलोक नहीं देखा तो उसका अनुमान भी सम्भव नहीं। अतः मेरे इस वृथा कष्ट सहन का नतीजा सिर्फ कष्ट सहकर मर जाने के सिवाय और क्या हो सकता है ? इस प्रकार दुश्चिन्तन करके कच्चा और कायर साधक उपसर्ग-सहन या उपसर्ग-विजय का सुपथ छोड़कर सुकुमार एवं असंयमी बन जाता है।५ उत्तराध्ययन सूत्र में भी उपसर्ग विजयोद्यत साधु को इस प्रकार का दुश्चिन्तन करने का निषेध किया गया है । ६ केशलोच और ब्रह्मचर्य के रूप में उपसर्ग १७७. संतत्ता केसलोएणं बंभचेरपराजिया। तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा पविट्ठा व केयणे ॥ १३ ॥ १७७. केश-लुञ्चन से संतप्त (पीड़ित) और ब्रह्मचर्य पालन से पराजित (असमर्थ) मन्द (जड़तुच्छ प्रकृति के साधक (प्रव्रज्या लेकर) मुनिधर्म में इस प्रकार क्लेश पाते हैं, जैसे जाल में फंसी हुई मछलियाँ तड़फती हैं। विवेचन-केशलोच एवं ब्रह्मचर्य पालन रूप उपसर्ग-प्रस्तुत सूत्रगाथा (१७७) में केशलोच और ब्रह्मचर्य पालन रूप उपसर्गों के समय नवदीक्षित साधक की मनोदशा का चित्रण किया गया है। दोनों उपसर्गों पर विजय पाने की प्रेरणा इस गाथा का फलितार्थ है। केशलोच : दीक्षा के पश्चात् सबसे कठोर परीक्षा रूप उपसर्ग-साधु-दीक्षा लेने के बाद जब सर्वप्रथम १५ (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पु० ४१६ के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ८१ के आधार पर १६ देखिये उपसर्ग या परीषह को सहने में कायरों के वाक्य (अ) 'को जाणइ परे लोए, अत्थि वा नत्थि वा पुणो। (ब) "नत्थि नूणं परे लोए, इड्ढी वा वि तवस्सिणो । अदुवा वंचिओमित्ति, इइ भिक्खू न चिंतए ॥" -उत्तरा० अ० ५/६ -उत्तराध्ययन अ०२/४४
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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