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सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा आक्रोश परीषह के रुप में उपसर्ग
१७३. अप्पेगे पडिभासंति पाडिपंथियमागता।
पडियारगया एते जे एते एवंजीविणो ॥ ६ ॥ १७४. अप्पेगे वई जुजंति नगिणा पिंडोलगाऽहमा।
मुंडा कंडूविणठेंगा उज्जल्ला असमाहिया ॥ १० ॥ १७५. एवं विप्पडिवण्णेगे अप्पणा तु अजाणगा।
तमाओ ते तमं जंति मंदा मोहेण पाउडा ॥ ११ ॥ १७३. कई (-पुण्यहीन) साधुजनों के प्रति द्रोही (प्रतिकूलाचारी) लोग (उन्हें देखकर) इस प्रकार प्रतिकूल बोलते हैं-ये जो भिक्षु इस प्रकार (भिक्षावृत्ति से) जी रहे हैं, ये (अपने) पूर्वकृत पापकर्मों का (फल भोग कर) बदला चुका रहे हैं।
१७४. कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये लोग नंगे हैं, परपिण्ड पर पलने वाले (टुकडैल) हैं, तथा अधम हैं, ये मुण्डित हैं, खुजली से इनके अंग गल गए हैं (या शरीर विकृत हो गए हैं), ये लोग सूखे पसीने से युक्त हैं तथा प्राणियों को असमाधि उत्पन्न करने वाले दुष्ट या बीभत्स है ।
१७५. इस प्रकार साधु और सन्मार्ग के द्रोही कई लोग स्वयं अज्ञानी; मोह से आवृत (घिरे हुए) और विवेकमूढ़ हैं । वे अज्ञानान्धकार से (निकल कर फिर) गहन अज्ञानान्धकार में जाते हैं।
विवेचन-साधु द्वषीजनों द्वारा-आक्रोश उपसर्ग-प्रस्तुत सूत्रगाथात्रय में साधु-विद्वषी प्रतिकूलाचारी लोगों द्वारा किये जाने वाले आक्रोशपरीषह रूप उपसर्ग का वर्णन है । साथ ही अन्त में, इस प्रकार द्रोह मोह-युक्त मूढजनों को मिलने वाले दुष्कर्म के परिणाम का निरूपण हैं। ____कठिन शब्दों को व्याख्या-पडिभासंति प्रतिकूल बोलते हैं, या चूणिकार सम्मत 'परिभासंति' पाठान्तर के अनुसार-परि-समन्ताद् भाषन्ते परिभाषन्ते' अर्थात् वे अत्यन्त बड़बड़ाते हैं। पाडिपंथियमागताप्रतिपथः=प्रतिकूलत्वं तेन चरन्ति-प्रातिपथिकाः-साधुविद्वषिणः तद्भावमागतः कथञ्चित् पतिपथे वा दृष्टा अनार्याः । अर्थात्-प्रतिपथ से यानी प्रतिकूलरूप से जो चलते हैं वे प्रातिपथिक है, अर्थात् साधु-विद्वषी है। साधुओं के प्रति द्वषभाव (द्रोह) पर उतरे हुए, कथञ्चित् असत्-पथ पर देखे गए अनार्य लोग।
पडियारगया-वृत्तिकार के अनुसार-प्रतीकारः-पूर्वाचरितस्य कर्मणोऽनुभवस्तं गता:-प्राप्ताः-स्वकृतकर्मफल-भोगिनः=प्रतीकार अर्थात् पूर्वाचरित कर्मफल के अनुभव-भोग को गतप्राप्त । यानी स्वकृत पापकर्म का फल-भोग करते हैं । चूर्णिकार इसके बदले 'तद्दारवेदणिज्जे ते' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं'जेहिं चेव दाहिं कतं तेहिं चेव वेदिज्जतित्ति तद्दारवेदणिज्ज, जधा अबत्तादाणा तेण ण लभते । अर्थात्-जिन द्वारों (रूपों) में कर्म किये है, उन्हीं द्वारों से इन्हें भोगना पड़ेगा, जैसे-इन्होंने पूर्वजन्म में अदत्त (बिना दिया हुआ) आदान (ग्रहण) कर लिया था (चोरी की थी), अतः अब ये बिना दिया ले नहीं सकते। एवंजीविणो इस प्रकार जीने वाले-अर्थात् भिक्षा के लिए ये दूसरों के घरों में घूमते है, इसलिए अन्त