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सूत्रहतांग-द्वितीय अध्ययन-बैतालीय घातक हों, उससे सतत बचना ही आत्मपरकता या आत्मपरायणता है। जो प्रवृत्ति आत्मा के लिए अकल्याणकर अहितकर हो, किन्तु दूसरों को उससे अर्थादिलाभ होता हो तो भी उसे न करे।3
परमाययट्ठिए-परमायत-मोक्ष (मोक्ष के लक्ष्य) में स्थित रहे । परम उत्कृष्ट आयत-दीर्घ हो, वह परमायत है, अर्थात् जो सदा काल शाश्वत स्थान है, श्रेष्ठ धाम है। साधु उस परमायत लक्ष्य में स्थित-परमायतस्थित तथा उस परमायत का अर्थी परमायतार्थिक-मोक्षाभिलाषी हो। अथवा अपने मन, वचन और काया को साधु मोक्षरूप लक्ष्य में ही स्थिर रखे, डांवाडोल न हो कि कभी तो मोक्ष को लक्ष्य बना लिया, कभी अर्थ-काम को या कभी किसी क्षुद्र पदार्थ को।
शेष आचरण-सूत्र तो स्पष्ट हैं । इन ११ आचरणसूत्रों को हृदयंगम करके साधु को मोक्षयात्रा करनी चाहिए।
अशरणभावना
१५८. वित्तं पसवो य णातयो, तं बाले सरणं ति मण्णती।
एते मम तेसु वो अहं, नो ताणं सरणं च विज्जइ ॥१६॥ १५६. अग्भागमितम्मि वा दुहे, अहवोवक्कमिए भवंतए।
एगस्स गती य आगती, विदुमंता सरणं न मन्नती ॥१७॥
१६०. सव्वे सयकम्मकप्पिया, अव्वत्तेण दुहेण पाणिणो।
हिडंति भयाउला सढा, जाति-जरा-मरणेहऽभिद्रुता ॥१८॥ १५८. अज्ञानी जीव धन, पशु और ज्ञातिजनों को अपने शरणभूत (शरणदाता या रक्षक) समझता है कि ये मेरे हैं, मैं भी उनका हूँ। (किन्तु वस्तुतः ये सब उसके लिए) न तो त्राणरूप हैं और न शरण
१५६. दुःख आ पड़ने पर, अथवा उपक्रम (अकालमरण) के कारणों से आयु समाप्त होने पर या भवान्त (देहान्त) होने पर अकेले को जाना या आना होता है । अतः विद्वान् पुरुष धन, स्वजन आदि को अपना शरण नहीं मानता।
१६०. सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों के कारण विभिन्न अवस्थाओं में व्यवस्थित-विभक्त हैं और सभी प्राणी अव्यक्त (अलक्षित) दुःख से दुःखी हैं । भय से व्याकुल शठ (अनेक दुष्कर्मों के कारण दुष्ट) जन जन्म, जरा और मरण से पीड़ित होकर (बार-बार संसार-चक्र में) भ्रमण करते हैं।
३३ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७४
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ ३६० ३४ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७४