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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा १५३ से १५४ वस्त्र की तरह फिर साधा (जोड़ा) नहीं जा सकता, ऐसा जीवन के रहस्य वेत्ता सर्वज्ञों ने कहा है। फिर भी अज्ञान और मोह के अन्धकार से व्याप्त मूढजन पापकर्म में निःसंकोच धष् करते हैं। उन्हें यह भान ही नहीं रहता कि वे जो पापकर्म करते हैं, उसके कितने दारुण-दुष्परिणाम भोगने होंगे। और जिस जीवन के लिए वे पापकर्म करते हैं, वह जीवन भी तो पानी के बुलबुले या काँच की तरह एक दिन नष्ट हो जायेगा। उनसे जब कोई कहता है कि तुम्हें परलोक में (अगले जन्मों में) इन पापकर्मों का भयंकर फल भोगना पड़ेगा, उसका तो विचार करो।' तब वे उत्तर दे देते हैं-'पच्चूपन्नेन रयं..."परलोकमागते।' अरे ! परलोक किसने देखा है ? कौन परलोक देखकर आया है ? परलोक की बातें गप्प लगती हैं। मुझे तो बस वर्तमान काम-भोगजन्य सुख से मतलब (काम) है । उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा है-"जो काम भोग अभी हस्तगत है, प्रत्यक्ष हैं, वे ही हैं, जिन्हें बहुत-सा काल व्यतीत हो गया, वे तो अतीत (नष्ट) हो गये और अनागत भी अभी अविद्यमान एवं अनिश्चित है। कौन जानता हैपरलोक है या नहीं है ?" ऐसे लोग जो परलोक, पुनर्जन्म, पुण्य-पाप का फलभोग आदि को नहीं मानते, वे बेखटके अहर्निश मन चाहे पाप में प्रवृत्त होते हैं। ऐसे लोगों को इस बात की तो कोई परवाह नहीं होती कि कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा। उन वर्तमानजीवियों का तर्क है-वर्तमान काल में होने वाले पदार्थ ही वस्तुतः सत् है। अतीत और अनागत विनष्ट और अनुत्पन्न होने से अविद्यमान है। इसलिए प्रेक्षापूर्वक कार्य करने वाले के लिए वर्तमानकालीन पदार्थ ही प्रयोजन साधक होने से उपादेय हो सकता है। शास्त्रकार ने परोक्षरूप से इन दोनों गाथाओं द्वारा सुविदित साधु को आरम्भ एवं पापकर्मों से बचने का उपदेश दिया है। कठिन शब्दों की व्याख्या-चिररायं=दीर्घकाल तक । आरम्भनिस्सिया=आरम्भ में रचे-पचे । पच्चुपन्नेन प्रत्युत्पन्न-वर्तमानकालवर्ती । कारियं=कार्य, प्रयोजन । सम्य में साधक-बाधक तत्र १५३. अदक्खुव दक्खुवाहितं, सद्दहसु अद्दक्खुवंसणा। हंदि हु सुनिरुद्धदसणे, मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणा ॥११॥ १५४. दुक्खी मोहे पुणो पुणो, निविदेज्ज सिलोग-पूयणं । एवं सहिते ऽहिपासए, आयतुलं पाणेहिं संजते ॥१२॥ १६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७२ (ख) अमरसुखबोधिनी व्याख्या; पृ० ३८३ (ग) सूत्रकृतांग मूलपाठ टिप्पण युक्त पृ० २७; (घ) उत्तराध्ययन अ० ५, गाथा ६ १७ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र ७२-७३
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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