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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा १४४ से १५० १५६ कामिनीसंसर्गत्यागी मुक्तसदृश क्यों और कैसे ?-साधक को मुक्ति पाने में सबसे बड़ी बाधा है-कामवासना। कामवासना जब तक मन के किसी भी कोने में हलचल करती रहती है, जब तक मुक्ति दूर रहती है। और कामवासना की जड़ कामिनी है, वास्तव में कामिनी का संसर्ग ही साधक में कामवासना उत्पन्न करता है। कामिनी-संसर्ग जब तक नहीं छटता, तब तक मनुष्य चाहे जितनी उच्च क्रिया कर ले, साधुवेष पहन ले, और घरबार आदि छोड़ दे, उसकी मुक्ति दूरातिदूर है। मुक्ति के निकट पहुँचने के ए, दूसर शब्दों में ससारसागर को पार करने के लिए कामिनियों के काम-जाल से सर्वथा मुक्तप्असंसक्त रहना आवश्यक है। जो व्यक्ति कामवासना की जड कामिनियों के संसर्ग से सर्वथा दर हैं वे मुक्तसदृश हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं "जे विण्णवणाहिऽझोसिया, संतिण्णेहि समं वियाणिया।" यहाँ 'विण्णवणा' . (विज्ञापना) शब्द कामिनी का द्योतक है। जिसके प्रति कामीपूरुष अपनी कामवासना प्रकट करता है, अथवा जो कामसेवन के लिए प्रार्थना-विज्ञपना या निवेदन करती है, इस दृष्टि से कामिनी को यहाँ विज्ञापना कहा गया है। विज्ञापनाओं-कामिनियों से जो महासत्त्व साधक असंसक्त हैं, सन्तीर्ण-संसारसागरसमुत्तीर्ण करने वाले मुक्त पुरुष के समान कहे गए हैं। यद्यपि उन्होंने अभी तक संसारसागर पार नहीं किया, तथापि वे निष्किचन और कंचनकामिनी में संसक्त होने से संसारसागर के किनारे पर ही स्थित हैं। यहाँ मूल में 'अझोसिया' पाठ है, उसका वृत्तिकार अर्थ करते हैं जो स्त्रियों से अजुष्टाः असेविताः अयं वा अवसायलक्षणमतीताः'- अर्थात्-अजुष्ट यानी असेवित हैं, अथवा जो कामिनियों द्वारा विनाशरूप क्षय को प्राप्त नहीं हैं। चूणिकार अर्थ करते हैं -अझूषिता नाम अनाद्रियमाणा इत्यर्थः - अर्थात्-जो कामिनियों द्वारा अझूषित-अनादृत हैं। तात्पर्य यह है कि जो काम और कामिनियों से इतने विरक्त हैं कि स्वयं कामिनियाँ उनका अनादर करती हैं, उपेक्षा करती हैं। क्योंकि उनका त्याग, रहन-सहन, वेशभूषा या चर्या ही ऐसी है कि कामिनियाँ उनसे कामवासना पूर्ति की दृष्टि से अपेक्षा ही नहीं करतीं, वे उनके पास आएँगी तो भी उनकी कामवासना भी उनके सानिध्य प्रभाव से ही शान्त हो जाएँगी। 'तम्हा उड्ढेति पासहा'-इस वाक्य का आशय यह है कि स्त्रीसंसर्गरूप महासागर को पार करने वाला, संसारसागर को लगभग पार कर लेता है, इस दृष्टि से कामिनीसंसर्ग से ऊपर उठकर देखो क्योंकि कामिनीसंसर्गत्याग के बाद ही मोक्ष का सामीप्य होता है। इस वाक्य के बदले "उड्ढं तिरियं अहे तहा" पाठ भी मिलता है जिसका 'अद्दक्खु कामाइं रोगवं' पाठ के साथ सम्बन्ध जोड़कर अर्थ किया जाता हैसौधर्म आदि ऊर्ध्व (देव) लोक, तिर्यकलोक में, एवं भवनपति आदि अधोलोक में भी काम हैं, उन्हें जिन महासत्त्वों ने रोगसदृश जान-देख लिया, वे भी संसारसमुद्र से तीर्ण-मुक्त पुरुष के समान कहे गये हैं । इसी से मिलते-जुलते आशय का एक श्लोक वैदिक सम्प्रदाय में प्रसिद्ध है "वेधा द्वधा भ्रमं चक्र, कान्तासु कनकेषु च ॥ तासु तेष्वनासक्त: साक्षात् भर्गो नराकृतिः॥" ५ सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पृ० ७० ६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति ७० (ख) सूयगडंग चूर्णि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० २६
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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