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________________ १४४ सूत्रकृतांग- द्वितीय अध्ययन - वैतालीय आगार में या अन्यत्र स्थित ( स्थविरकल्पी) साधु से यदि कोई धर्म आदि के सम्बन्ध में या मार्ग अथवा परिचय पूछे तो सावद्य ( समाप) भाषा न बोले ।" (४) सूर्य अस्त हो जाए वहाँ शान्ति से रह जाए - इस निर्देश के पीछे यह रहस्य है कि रात के अँधेरे साँप, बिच्छू आदि दिखाई न देने के कारण काट सकते हैं, हिंस्र वन्य पशु भी आक्रमण कर सकते हैं, चोर लुटेरे आदि के सन्देह में वह पकड़ा जा सकता है, अन्य सूक्ष्म व स्थूल जीव भी पैर के नीचे आकर कुचले जाने सम्भव हैं । इसलिए सूर्यास्त होते ही वह उचित स्थान देखकर वहीं रात्रि निवास करे । (५) प्रतिकूल एवं उपद्रव युक्त स्थान में समभाव से परोषह सहे - कदाचित् कोई ऊबड़-खाबड़ खुला या बिलकुल बन्द स्थान मिल गया, जहाँ डांस, मच्छर आदि का उपद्रव हो, जंगली जानवरों का भय हो, जहरीले जन्तु निकल आयें तो साधु व्याकुल हुए बिना शान्ति से उन परीषहों को सह ले । (६) गर्म पानी गर्म-गर्म ही पीये - यह स्वाद - विजय एवं कष्टसहिष्णुता की दृष्टि से एकचारी साधुका विशिष्ट आचार बताया है। एकचर्या की विकट साधना का अधिकारी साधक - सूत्रगाथा १२२ से १२८ तक जो एकचर्या की विशिष्ट साधना, उसकी योग्यता तथा उस साधना की कुछ विशिष्ट आचार संहिता को देखते हुए निःसन्देह कहा जा सकता है कि इस कठोर साधना का अधिकारी या तो कोई विशिष्ट अभिग्रहधारी साधु हो सकता है, या फिर जिनकल्पिक साधु । स्थविरकल्पी साधु के वश की बात नहीं है कि वह दैवी, मानुषी या तिर्यञ्चकृत उपसर्गों या विविध परीषहों के समय उक्त प्रकार से अविचल रह सके, भय से कांपे नहीं, जीवन का मोह या यश-प्रतिष्ठा की आकांक्षा का मन से जरा भी स्पर्श न हो । वृत्तिकार ने भी इसी बात का समर्थन किया है । १७ इतनी विशिष्ट योग्यता कैसे आये ? प्रश्न होता है - इतने भयंकर कष्टों, उपद्रवों एवं संकटों का सामना करने की शक्ति किसी भी साधक में एकदम तो आ नहीं सकते। कोई दैवी वरदान से तो यह शक्ति और योग्यता प्राप्त होने वाली नहीं, ऐसी स्थिति में एकचारी साधक में ऐसी क्षमता और योग्यता कैसे आ पायेगी ? शास्त्रकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं- 'अब्भत्यमुवेंति भेरवा "भिक्खुणे ।" इसका आशय यह है कि ऐसा विशिष्ट साधक महामुनि जब जीने की आकांक्षा और पूजा-प्रतिष्ठा की लालसा का बिलकुल त्याग करके बार-बार शून्यागार में कायोत्सर्गादि के लिए जायेगा, वहाँ पूर्वोक्त दंश-मशक आदि के उपद्रव तथा भयंकर उपसर्ग आदि सहने का अभ्यास हो जायेगा, तब उसे ये सब उपसर्गकर्ता प्राणी आत्मीय मित्रवत् प्रतीत होने लगेंगे, और मतवाले हाथी के समान उसके मन पर १६ सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ६४ १७ (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या ३४२ से ३५२ ( ख ) I.... शून्यागारगतः शून्यगृहव्यवस्थितस्य चोपलक्षणार्थत्वात् पितृवनादि स्थितो महामुनिर्जिन कल्पादिरिति । IJ तत्रस्थोऽन्यत्र वा केनचिद् धर्मादिकं मार्गं वा पृष्टः — सन् सावद्यां वाचं नोदाहरेन यात्, अभिग्रहिको जिनकल्पादिनिरवद्यामपि न ब्रूयात् । नाऽपि शयनार्थी कश्चिदाभिग्रहिकः तृणादिकं संस्तरेत् - तृणैरपि - संस्तेरकं न कुर्यात् किं पुनः कम्बलादिना ? - सूत्रकृ० वृत्ति पत्रांक ६४-६५
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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