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सूत्रकृतांग - द्वितीय अध्ययन - वैतालीय
रहने पर गृहस्थों का सम्पर्क अधिक होगा, साधु को उनसे सम्मान, प्रतिष्ठा, कल्पनीय यथोचित साधन सुख-सुविधाएँ योग्य वस्त्र, पात्र, आवासस्थान आदि मिलने सम्भव है । ऐसे समय में वह साधु अगर सावधानी न रखे तो उसका जीवन संसर्गजनित दोषों और गर्वादि जनित अनिष्टों से बचना कठिन है । इसी दृष्टि से तथा उक्त दोनों दोषों से दूर रहकर साधु जीवन की समाधि और यथार्थ आनन्द प्राप्त करने हेतु शास्त्रकार ने एक विशिष्ट उच्च साधना - एकचर्या - साधना बताई है - एगे चरे ठाणमासणे सपणे एगे समाहिए । इस पंक्ति का आशय यह हैं कि इन सब दोषों तथा राग-द्वेष कषाय आदि से बचने के लिए साघु अकेला विचरण करे, अकेला ही कायोत्सर्ग करे, अकेला ही ठहरे-बैठे और अकेला ही शयन करे । यहाँ जितनी भी एकाकीचर्या बताई है, वहाँ द्रव्य और भाव दोनों से वह एकाकी होनी चाहिए । द्रव्य से एकाकी का मतलब है- दूसरे - साधु श्रावकवर्ग से सहायता लेने में निरपेक्ष । भाव से एकाकी का अर्थ है - राग-द्वेषादि दोषों से तथा जनसम्पर्क - जनित दोषों से रहित एकमात्र आत्मभावों में या आत्म गुणों में स्थित रहकर विचरण करना । अपना स्थान भी ऐसा चुने, जो एकान्त, विजन, पवित्र, शान्त और स्त्री-पशु-नपुंसक संसर्ग रहित हो। जिसके लिए शास्त्रकार ने आगे निर्देश किया है- 'भयमाणस्स विवितमासणं' । यदि साधु एकलविहारी भी हो गया, किन्तु ग्राम के बाहर अथवा कहीं एकान्त में रहकर भी अपना अखाड़ा जमाना शुरु कर दिया, जनता की भीड़ वहाँ भी आने लगी, अथवा वह स्थान एकान्त में होते हुए भी मुर्दाघाट है या गन्दगी ( मल-मूत्र ) डालने का स्थान है तो वह भी ठीक नहीं । अथवा एकान्त होते हुए भी वहाँ आस-पास कल कारखानों का या अन्य कोई कोलाहल होता है, अथवा वह पशुओं को बांधने का बाड़ा हो, अथवा किसी स्त्री या नपुंसक का वहाँ रात्रिकाल में आवागमन होता हो तो वह विविक्त नहीं कहलाता, अपवित्र, अशान्त, कोलाहल युक्त या स्त्री-पशु-नपुंसक संसक्त जन समुदाय ' के जम घट वाले स्थान में रहने से साधु के एकाकीचर्या की साधना स्वीकार करने का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता । वहाँ उसके स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि साधना में विक्षेप पड़ेगा लौकिक स्वार्थ वश सांसारिक लोगों का जमघट शुरू हो गया तो साधु को उनके झमेले से ही अवकाश नहीं मिल पाएगा इन सब खतरों से बचे रहने के लिए एकचर्या के विशिष्ट साधक को यहाँ सावधान किया है । १२८वीं गाथा में इसी बात को स्पष्ट कर दिया है - 'संसग्गी असाहु रायििह ।' - अर्थात् राजा आदि राजनीतिज्ञों या सत्ताधारियों के साथ संसर्ग ठीक नहीं है, वह आचारवान् साधु के लिए असमाधिकारक है । "
एकांकीचर्या के योग्य कौन और कौन नहीं ? – एकाकी विचरण करने वाले साधु को कठोर साधना करनी पड़ती है, क्योंकि एकाकी विचरण -साधना अंगीकार करने के बाद जरा-सी स्थान की, आहारपानी की असुविधा हुई, सम्मान सत्कार में लोगों की अरुचि देखी कि मन में उचाट आ गया, अथवा वाणी में रोष, कठोरता एवं अपशब्द आ गये, या किसी सूने घर में ठहर जाने पर भी वहाँ किसी प्रकार का देवी, मानुषी, या पाशविक उपद्रव खड़ा हो गया, तो साधु की समाधि भंग हो जायेगी, मन में रागद्वेष-मोह का उफान आने लागेगा । दशाश्रु तस्कन्ध में कहा है- उक्त बीस असमाधि स्थानों से दूर रहकर श्रुत, विनय, आचार एवं तप, इन चार प्रकार की समाधि में स्थित रहना चाहिए । वस्तुतः एकचर्या का लाभ उसी को मिल सकता है, जो पहले अपने आपको एकचर्या के योग्य बना ले । अन्यथा,
१४ सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पू० ३४३-३४४ के आधार पर