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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा १२१ १३६ ___ महयं पलिगोव जाणिया-सांसारिकजनों का अति परिचय साधकों के लिए परिगोप है-पंक (कीचड़) है। परिगोप दो प्रकार का है-द्रव्य-परिगोप और भाव परिगोप । द्रव्यपरिगोप कीचड़ को कहते हैं, और भावपरिगोप कहते हैं आसक्ति को। इसके स्वरूप और परिणाम को जानकर" जैसे कीचड़ में पैर पड़ने पर आदमी या तो फिसल जाता है या उसमें फंस जाता है, वैसे ही सांसारिकजनों के अतिपरिचय से ये दो खतरे हैं। जावि वंक्षणपूयणा इह-मुनि धर्म में दीक्षित साधु के त्याग-वैराग्य को देखकर बड़े-बड़े धनिक, शासक, अधिकारी लोग उसके परिचय में आते हैं, उसकी शरीर से, वचन से वन्दना, भक्ति, प्रशंसा की जाती है और वस्त्रपात्र आदि द्वारा उसकी पूजा-सत्कार या भक्ति की जाती है। अधिकांश साधु इस वन्दना एवं पूजा से गर्व में फूल जाते हैं । यद्यपि जो वन्दना-पूजा होती है वह जैन सिद्धान्तानुसार कर्मोपशमजनित फल मानी जाती है अतः उसका गवं न करो। नागार्जुनीय पाठान्तर-यहाँ वृत्तिकार एक नागार्जुनीय सम्मत पाठान्तर सूचित करते हैं पलिमंथ महं विजाणिया, जा वि य वंदनपूयणा इधं । सुहुमं सल्लं दुरुल्लसं, तं पि जिणे एएण पंडिए । ' अर्थात्-स्वाध्याय-ध्यानपरायण एवं एकान्तसेवी नि:स्पृह साधु का जो दूसरों-सांसारिक लोगों द्वारा वन्दन-पूजनादि रूप में सत्कार किया जाता है वह भी साधु के धर्म के सदनुष्ठान या सद्गति में महान् पलिमन्थ-विघ्न है, तब फिर शब्दादि विषयों में आसक्ति का तो कहना ही क्या ? अतः बुद्धिमान् साधक इस दुरुद्धर सूक्ष्म शल्य को छोड़ दें।" चूणिकार 'महयं पलिगोव जाणिया' के बदले 'महता पलिगोह जाणिया' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं- "परिगोहो गाम परिष्वंगः"भावे अभिलाषो बाह्यभ्यन्तरवस्तुषु ।" अर्थात् परिगोह कहते हैं-परिष्वंग (आसक्ति) को, द्रव्यपरिगोह पंक है, जो मनुष्य के अंगों में चिपक जाता है, भावपरिगोह है-बाह्यआभ्यन्तर पदार्थों की अभिलाषा-लालसा ।" इसी आशय को बोधित करने वाली एक गाथा सुत्तपिटक में मिलती है। उसमें भी सत्कार को सूक्ष्म दुरुह शल्य बताया गया है ।१२ १० (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक ६४ ___ (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ३४०-३४१ ११ (क) सूत्रकृतांग चूणि पृ० ६३ (ख) सूत्रकृतांग समयार्थबोधिनी टीका आ० १ पृ० ४६०-४६१ १२ पंङ्कोति हि नं पवेदयु यायं, वन्दनपूजना कुलेसु । सुखमं सल्लं दुरुव्वहं सक्कारो कापुरिसेन दुज्जहो । -सुत्त पिटक खुद्दकनिकाये थेरगाथा २६३, ३१४, ३७२
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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