________________
१३०
सुत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय
शान्त हो, कर्म विदारण वीर साधक इस सिद्ध पथ, न्याय युक्त और ध्रुव महा मार्ग के प्रति समर्पित होते हैं, तुम भी समर्पित हो जाओ, इसी वैदारिक महामार्ग पर आ जाओ, (६) मन-वचन-काया से संयत-संवृत्त बनो, तथा (७) धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब कबीला; एवं सावध आरम्भ-समारम्भ का त्याग कर उत्तम संयमी बनकर विचरण करो।
पणया वीरा महावीहि-आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में भी यह वाक्य आता है । सम्भव है, सूत्रकृतांग के द्वितीय अध्ययन की २१ वीं गाथा में इस वाक्य सहित पूरा पद्य दे दिया हो । यहाँ वृत्तिकार ने इस वाक्य का विवेचन इस प्रकार किया है-वीर-परीषह-उपसर्ग और कषाय सेना पर विजय प्राप्त करने वाले-वीर्यवान (आत्म-शक्तिशाली) पुरुष, महावीथी-सम्यग्दर्शनादि रूप मोक्ष मार्ग के प्रति प्रणत हैं-झुके हुए हैं-समर्पित हैं। यहाँ 'वीरा' का अर्थ वृत्तिकार ने कर्म-विदारण समर्थ' किया है। 'महावीहि' शब्द के ही यहाँ 'सिद्धिपह; णेयाउयं' एवं 'धुवं' विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं। ‘णेयाउयं' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-मोक्ष के प्रति ले जाने वाले किन्तु आवश्यक सूत्रान्तर्गत श्रमण सूत्र में तथा उत्तराध्ययन में समागत ‘णेयाउयं' का अर्थ न्याययुक्त या न्यायपूर्ण किया गया है ।२४
'पणया वीरा महावीहि' के स्थान पर शीलांकाचार्यकृत वृत्ति सहित मूलपाठ में 'पणए वीरं महाविहि' पाठान्तर है । चूर्णिकार ने एक विशेष पाठान्तर उद्धृत किया है-'पणता वीधेतऽणुत्तरं' व्याख्या इस प्रकार है-'एतदितिभावविधी जं भणिहामि, अणुत्तरं असरिस, अणुत्तरं वा ठाणादि'-- अर्थात यह भावविधि (जिसका वर्णन आगे कहेंगे) अनुत्तर-असदृश-अप्रतिम है, अथवा स्थानादि अनुत्तर है। उसके प्रति प्रणत=समर्पित हो।६ तम्हा दवि इक्ख पंडिए=इस गाथा में सर्वप्रथम आन्तरिक निरीक्षण करने को कहा गया है, उसके लिए दो प्रकार से योग्य बनने का निर्देश भी है । 'दवि' और 'पंडिए' । दविए' के जैसे दो अर्थ होते हैं-द्रव्य अर्थात् भव्य मोक्ष गमन योग्य, अथवा राग-द्वेष रहित; वैसे 'पंडिए' के भी मुख्य चार अर्थ होते हैं- (१) सद्-असद्-विवेकशील, (२) पाप से दूर रहने वाला, (३) इन्द्रियों से अखण्डित अथवा (४) ज्ञानाग्नि से अपने कर्मों को जला डालने वाला।२७
२५ (क) प्रणताः प्रह्वाः वीराः परीषहोपसर्ग-कषाय सेनाविजयात् वीथिः पन्था: महांश्चासी वोथिश्च महावीथि= सम्यग्दर्शनादिरूपो मोक्षमार्गों.."जिनेन्द्रचन्द्रादिभिः प्रहतः तं प्रति प्रहाः-वीर्यवन्तः।।
-आचारांग श्रु० १, अ. १,३-१, सूत्र २० की वृत्ति पत्रांक ४३ (ख) प्रणताः-प्रह्वीभूताः वीराः मंविदारणसमर्थाः महावीथि महामार्ग -सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक ६०
(ग) णेआउयं-मोक्षम्प्रति नेतारं प्रापकं । -सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक ६० २६ क) 'पणए वीरं महाविहिं -सूत्रकृतांग मूलपाठ शीलांक वृत्ति युक्त पत्रांक ६०
(ख) सूत्रकृतांग चूर्णि-(मूलपाठ टिप्पणयुक्त) पृ० १६-२० २७ (क) दवि-द्रव्यभूतो भव्यः मुक्ति गमनयोग्य : रागद्वेष रहितो वा सन् -सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक ६० (ख) पंडिए -पण्डा-सदसद्विवेकशालिनी बुद्धि; संजाता अस्येति पण्डित:
-वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी (भट्टोजिदीक्षित) पापाड्डीनः पण्डितः - दशवकालिक हारी० वृत्ति स पण्डितो यः करणरखण्डितः--- उपाध्याय यशोविजयजी ".."ज्ञानादिदग्धकर्माण तमाहः पण्डिता बुधाः-गीता० अ० ४/१६