________________
१२८
सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय अतः घर में रहकर हमारा पालन-पोषण करो। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं- “सेहतिय""जहासि पोसणे।'
___ सच्चा साधु बहके-फिसले नहीं-ये और इस प्रकार के अनेक अनुकूल उपसर्ग साधु को संयम मार्ग एवं साधुत्व से विचलित एवं भ्रष्ट करने और उसे किसी तरह से मनाकर पुनः गृहस्थ भाव में स्थापित करने के लिए आते हैं, परन्तु शास्त्रकार उपदेश की भाषा में कहते हैं कि वह अनगार, श्रमण संयम स्थान में स्थित तपस्वी, भिक्ष मोही स्वजनों की प्रार्थना पर जरा भी ध्यान थक जाएँ फिर भी साधु इस प्रकार की दृढ़ता दिखाए कि वे उसे अपने वश-अधीन न कर सकें न ही गृहस्थी में उसे स्थापित कर सकें। इस बात को शास्त्रकार ने तीनों गाथाओं में दोहराया है। उसे संयम पर दृढ़ रहने के लिए यहाँ शास्त्रकार ने ७ बातें ध्वनित की हैं -(१) उनकी प्रार्थना पर ध्यान न दे, (२) उनकी बातों से जरा भी न पिघले, (३) उनके करुण-विलाप आदि से जरा भी विच
हो, (३) उनके द्वारा प्रदर्शित प्रलोभनों से बहके नहीं, भयों से घबराकर डिगे नहीं, (५) उनकी बातों में जरा भी रुचि न दिखाए, (६) उनकी संयम भ्रष्ट कारिणी शिक्षा पर जरा भी विचार न करे, (७) असंयमी जीवन की जरा भी आकांक्षा न करे।
शास्त्रकार उन सच्चे साधूओं को अपने साधूत्व-संयम और श्रमणत्व में दृढ़ एवं पक्के रखने के आशय से कहते हैं-अन्ने अन्नेहि मुच्छिता मोहं जंति...."पुणो पगन्मिता-अर्थात वे दूसरे हैं, कच्चे साधू हैं, जो माता-पिता आदि अन्य असंयमी लोगों द्वारा प्रलोभनों से बहकाने-फुसलाने से, भय दिखाने से मूच्छित हो जाते हैं , और उनके चक्कर में आकर दीर्घकालीन अथवा महामूल्य अति दुर्लभ संयम धन को खोकर असंयमी बन जाते हैं। उन मूढ़ साधकों को उन असंयमी लोगों के द्वारा विषम (सिद्धान्त एवं संयम से हीन) पथ पकड़ा दिया जाता है, फलतः वे गृहस्थ-जीवन में पड़कर अपने परिजनों या कामभोगों में इतने आसक्त हो जाते हैं कि फिर वे किसी भी पाप को करने में कोई संकोच नहीं करते । यहाँ तक कि फिर गृहस्थोचित धर्म-मर्यादाओं को भी वे ताक में रख देते हैं । संयम भ्रष्ट पुरुष अठारह ही प्रकार के पापों को करने में धृष्ट एवं निरंकुश हो जाते हैं।
अन्ने अन्नेहि मुच्छिया-आदि पाठ से शास्त्रकार ने उन सच्चे श्रमणों को सावधान कर दिया है कि वे दूसरे हैं, तुम वैसे नहीं हो, वे मन्द पराक्रमी, आचार-विचार शिथिल, साधुत्व में अपरिपक्व, असंयम रुचि व्यक्ति हैं, जो परायों (असंयमियों) को अपने समझकर उनके चक्कर में पड़ जाते हैं, पर तुम ऐसे कदापि नहीं बनोगे, अपने महामूल्य संयम धन को नहीं खोओगे।3
कठिन शब्दों की व्याख्या-उठ्ठियमणगारमेसणं घर-बार, धन-सम्पत्ति, एवं सांसारिक कामभोगों को छोड़कर गृह-त्यागी होकर मुनि धर्मोचित एषणा-पालन के लिए उद्यत है। समणं ठाणठियं-श्रमण (संयम में पुरुषार्थी) है तथा उत्तरोत्तर विशिष्ट संयम स्थानों में स्थित है। चूर्णिकार के अनुसार-समणाणठिय' पाठान्तर सम्भावित है, क्योंकि इसकी व्याख्या की गयी है - 'समणाणं ठाणे ठितं चरित्ते णाणातिसु' अर्थात् श्रमणों के स्थान में-चारित्र में या ज्ञानादि में स्थित है । अवि सुस्से = (यों कहते-कहते) उनका गला सूख जाए अर्थात् वे थक जाएँ अथवा इसका 'अपि श्रोष्ये' रूप भी संस्कृत में होता है, अर्थ होता है-वह साधु
२३ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ५८-५९ पर से