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प्रथम उद्देशक : गाथा १०४ से १०८
१२५ अनुकूल-परीषह-विजयोपदेश
१०४ उठ्ठियमणगारमेसणं, समणं ठाणठियं तवस्सिणं ।
डहरा वुड्ढा य पत्थए, अवि सुस्से ण य तं लभे जणा ॥१६।। १०५ जइ कालुणियाणि कासिया, जइ रोवंति व पुत्तकारणा।
दवियं भिक्खु समुट्ठितं, णो लन्भंति ण संठवित्तए ॥१७॥ १०६ जइ वि य कामेहि लाविया, जइ णेज्जाहि णं बंधिउं घरं।
जति जीवित णावकंखए, णो लब्भंति ण संठवित्तए ॥१८॥ १०७ सेहंति य णं ममाइणो, माय पिया य सुता य भारिया।
पासाहि णे पासओ तुमं, लोयं परं पि जहाहि पोसणे ॥१९॥ १०८ अन्ने अन्नेहिं मुच्छिता, मोहं जंति नरा असंवुडा।
विसमं विसमेहि गाहिया, ते पावेहि पुणो पगम्भिता ॥२०॥ १०४. गृह त्याग कर अनगार बने हुए तथा एषणां पालन के लिए उत्थित-तत्पर अपने संयम स्थान में स्थित तपस्वी श्रमण को उसके लडके-बच्चे तथा बडे-बढे (मां-बाप आदि) (प्रव्रज्या छ चाहे जितनी प्रार्थना करें, चाहे (प्रार्थना करते-करते) उनका गला सूखने लगे-(वे थक जाएँ, परन्तु वे) उस (श्रमण) को पा नहीं सकते, अर्थात्-मनाकर अपने अधीन नहीं कर सकते।
१०५. यदि वे (साधु के माता-पिता आदि स्वजन) (उसके समक्ष) करुणा-प्रधान वचन बोलें या कारुण्योत्पादक कार्य करें और यदि वे अपने पुत्र के लिए रोयें-विलाप करें, तो भी मोक्ष-साधना या साधुधर्म का पालन करने में उद्यत उस द्रव्य (भव्य मुक्तिगमन योग्य) उस (परिपक्व) भिक्षु को प्रव्रज्या भ्रष्ट नहीं कर सकते, न ही वे उसे पुनः गृहस्थ वेष में स्थापित कर सकते हैं।
१०६. चाहे (साधु के पारिवारिक जन उसे) काम-भोगों का प्रलोभन दें, वे उसे बांधकर घर पर ले जाए, परन्तु वह साधु यदि असंयमी जीवन नहीं चाहता है, तो वे उसे अपने वश में नहीं कर सकते, और न ही उसे पुनः गृहवास में रख सकते हैं।
१०७. 'यह साधु मेरा है,' ऐसा जानकर साधु के प्रति ममत्व करने वाले उसके माता-पिता और पत्नी-पुत्र आदि (कभी-कभी) साधु को शिक्षा भी देते हैं-तुम तो प्रत्यक्षदर्शी हो या सूक्ष्म (दूर) दर्शी हो, अतः हमारा भरण-पोषण करो। ऐसा न करके, तुम इस लोक और परलोक दोनों के कर्तव्य को छोड़ रहे हो । (अतः किसी भी तरह से) हमारा पालन-पोषण करो।
१०८. संयम भाव से रहित (असंवृत) कोई-कोई मनुष्य-(अपरिपक्व साधक) (माता-पिता, स्त्रीपुत्र आदि) अन्यान्य पदार्थों में मूच्छित-आसक्त होकर मोहमूढ़ हो जाते हैं । विषम व्यक्तियों-संयम रहित मानवों द्वारा विषम-असंयम ग्रहण कराये हुए वे मनुष्य पुनः पापकर्म करने में धृष्ट हो जाते हैं।