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प्रथम उद्देशक : गाथा १०१ से १०३
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आचारांग-सूत्र में दो प्रकार के परीषह बताये गये हैं-शीत और उष्ण । जिन्हें अनुकूल और प्रतिकूल परीषह भी कहा जाता है । २२ परीषहों में से स्त्री और सत्कार, ये दो शीत या अनुकूल परीषह कहलाते हैं, तथा शेष २० परीषह उष्ण या प्रतिकूल कहलाते हैं। इसीप्रकार उपसर्ग भी शोत और उष्ण दोनों प्रकार के होते हैं। ६ उपसर्ग परीषह सहन क्यों करना चाहिए? इसके लिए शास्त्रकार चिन्तन सूत्र प्रस्तुत करते हैं-(१) ये उपसर्ग और परीषह मुझे ही पीड़ित नहीं करते, संसार के सभी प्राणियों को पीडित करते हैं। परन्तु पूर्वकृत कर्मोदयवश जब ये कष्ट साधारण व्यक्ति पर आते हैं, तो वह हाय-हाय करता हुआ इन्हें भोगता है, जिससे कर्मक्षय (निर्जरा) के बदले और अधिकाधिक कर्म बंध कर लेता हैं, ज्ञानादि सम्पन्न साधक पूर्वकृत अशुभ कर्मों का फल जानकर इन्हें शत्रु नहीं, मित्र के रूप में देखता है, क्योंकि ये परीषह या उपसर्ग साधक को कर्मनिर्जरा का अवसर प्रदान करते हैं, धर्म पर दृढ़ता की भी कसौटी करते हैं । अतः परीषहों और उपसर्गों को समतापूर्वक सहन करना चाहिए। उस समय न तो उन कष्टदाताओं या कष्टों पर क्रोध करे, और न कष्टसहिष्णु होने का गर्व करे । अनुकूल परीषह या उपसर्ग आने पर विषयसुख लोलुपतावश विचलित न हो, अपने धर्म पर डटा रहे। इन्हें सहन करने से साधक में कष्टसहिष्णुता, धीरता, कायोत्सर्ग-शक्ति, आत्म-शक्ति आदि गुणों में वृद्धि होती है ।
अज्ञानी लोग विविध कष्टों को सहते हैं, पर विवश होकर, समभाव से नहीं, इसी कारण वे निर्जरा के अवसरों को खो देते हैं।
परीषह और उपसर्ग सहने के सहज उपाय-शास्त्रकार ने परीषह और उपसर्ग को सहजता से सहने के लिए तीन उपाय बताये हैं
(१) शरीर को अनशन आदि (उपवासादि) तपश्चर्या के द्वारा कृश कर दें; (२) परीषह या उपसर्ग के आने पर अहिंसा धर्म में डटा रहे;
(३) उपसर्ग या परीषह को पूर्वकृत कर्मोदयजन्य जानकर समभाव से भोग कर कर्मरज को झाड़ दे ।
यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि स्वेच्छा से अपनाये हुए कष्टों को मनुष्य कष्ट अनुभव नहीं करता, किन्तु जब दूसरा उन्हीं कष्टों को देने लगता है तो कष्ट असह्य हो जाते हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि परीषहों और उपसर्गों को समभावपूर्वक हँसते-हँसते सहने के लिए पहले साधक को स्वेच्छा से विविध कष्टों को-अनशनादि तपस्या, त्याग, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, सेवा, आतापना, वस्त्रसंयम, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, ऊनोदरी, रसपरित्याग, वृत्ति संक्षेप आदि के माध्यम से अपनाकर अभ्यास करना चाहिए। आचारांग सूत्र में इसके लिए सम्यक् मार्गदर्शन दिया गया है।
१६ इत्थीसक्कार-परीसहो य दो भाव सीयला एए । ___ सेसा वीसं उण्हा परीसहा हुँति नायव्वा ॥ -आचा० नियुक्ति गा० २०३ २० (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र ५७-५८ के आधार पर
(ख) 'कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं __ -आचारांग श्रु.० १ अ० ४ उ० ३/१४१