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________________ वैतालीय-द्वितीय अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांगसूत्र (प्र० श्रु०) के द्वितीय अध्ययन का नाम 'वैतालीय' है। 0 प्राकृत में इसका नाम वेयालीय है, संस्कृत में उसके दो रूप होते हैं-वैतालीय और वेदारिक, जिन्हें नियुक्तिकार, चूर्णिकार और वृत्तिकार तीनों स्वीकार करते हैं। - कर्मों के या कर्मों के बीज-रागद्वेष-मोह के संस्कारों के विदार (विदारण-विनाश) का उपदेश होने से इस अध्ययन को वैदारिक कहा गया है। इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक में 'वेयालियमग्गमागओं' का अर्थ चूर्णि और वृत्ति में 'कर्म-विदारण, का अथवा कर्म-विदारक भगवान महावीर का मार्ग' किया गया है। - इस अध्ययन की रचना वैतालीय वृत्त (छन्द) में की गई है, इस कारण भी इस अध्ययन का नाम 'वैतालीय' है।' [] मोहरूपी वैताल (पिशाच) साधक को सामाजिक, पारिवारिक, शारीरिक, मानसिक, आदि रूप में कैसे-कैसे पराजित कर देता है ? उससे कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे बचना चाहिए ?, इस प्रकार मोह वैताल-सम्बन्धी वर्णन होने के कारण इसका नाम वैतालीय या वैतालिक सार्थक है।' १ (क) वेयालियं इह देसियंति, वेयालियं तओ होइ । . वेयालियं तहा वित्तमत्थि, तेणेव य णिबद्ध । -सूत्रकृ० नियुक्ति गाथा ३८ (ख) वैयालियमग्गमागओ-कर्मणां विदारणमार्गमागतो भूत्वा..."। -सूत्र कृ. शीलांक वृत्ति पत्र ५९ (ग) “विदार का अर्थ है--विनाश । यहाँ रागद्वेष रूप संस्कारों का विनाश विवक्षित है। जिस अध्ययन में रागद्वेष के विदार का वर्णन हो, उसका नाम है वैदारिक ।" -जनसाहित्य का बृहद् इतिहास भा० १ पृ० १४० (घ) "वैतालीयं लगनेर्धनाः षड्यूपादेऽष्टौ समे च लः। न समोऽत्र परेण युज्यते, नेतः षट् च निरन्तरा युजोः ॥" -जिस वृत्त (छन्द) के प्रत्येक पाद के अन्त में रगण, लघु और गुरु हों, तथा प्रथम और तृतीय पाद में ६-६ मात्राएँ हों, एवं द्वितीय और चतुर्थ पाद में ८-८ मात्राएँ हों, तथा समसंख्या वाला लघु परवर्ण से गुरु न किया जाता हो, एवं दूसरे व चौथे चरण में लगातार छह लघु न हों, उसे वैतालीय छन्द कहते हैं। -सून शी० वृत्ति पत्रांक ५३ २ (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० २८२ के आधार पर (ख) जैन-आगम साहित्य : मनन और मीमांसा पृ० ८१ के आधार पर
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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