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सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय इस प्रकार चारित्र शुद्धि के लिए साधु को दस विवेकसूत्रों का उपदेश शास्त्रकार ने प्रस्तुत प्रसंग में दिया है ।२४
इस दस विवेक सूत्री पर क्रमशः चिन्तन-विश्लेषण करना आवश्यक है
१. समाचारी में विविध प्रकार से रमा रहे- चारित्र शुद्धि के लिए यह प्रथम विवेकसूत्र है । समाचारी साधु संस्था की आचार संहिता है, उस पर साधु की श्रद्धा, आदर एवं निष्ठा होनी आवश्यक है। इसीलिए यहाँ शास्त्रकार ने एक शब्द प्रयुक्त किया है-'वुसिए' जिसका शब्दशः अर्थ होता है-विविध प्रकार से बसा हुआ। वृत्तिकार उसका आशय खोलते हुए कहते हैं-अनेक प्रकार से दशविध साधुसमाचारी में स्थित-बसा रहने वाला। क्योंकि यह समाचारी भगवदुपदिष्ट हैं, संसार सागर से तारने वाली एवं साधू के चारित्र को शुद्ध रखती हई उसे अनुशासन में रखने वाली है। समाचारी के दस प्रकार क्रमशः ये हैं
(१) आवस्सिया- उपाश्रय आदि स्थान से बाहर कहीं भी जाना हो तो 'आवस्सही आवस्सही' कहना आवश्यकी है।
(२) निसीहिया-वापस लौटकर स्वस्थान (उपाश्रयादि) में प्रवेश करते समय निस्सिहीनिस्सिही कहना नैषिधिको है।
(३) आपुच्छणा-कार्य करते समय ज्येष्ठ दीक्षित से पूछना आपच्छना हैं। (४) पडिपुच्छणा-दूसरों का कार्य करते समय बड़ों से पूछना प्रतिपृच्छना है। (५) छंदणा-पूर्वगृहीत द्रव्यों के लिए गुरु आदि को आमन्त्रित (मनुहार) करना 'छन्दना' है।
(६) इच्छाकार-अपने और दूसरे के कार्य की इच्छा बताना या स्वयं दूसरों का कार्य अपनी सहज इच्छा से करना, किन्तु दूसरों से अपना कार्य कराने (कर्तव्यनिर्देश करने) से पहले विनम्र निवेदन करना कि आपकी इच्छा हो तो अमुक कार्य करिए, अथवा दूसरों की इच्छा अनुसार चलना 'इच्छाकार' है।
(७) मिच्छाकार-दोष की निवृत्ति के लिए गुरुजन के समक्ष आलोचना करके प्रायश्चित्त लेना अथवा आत्मनिन्दापूर्वक 'मिच्छामि दुक्कडं' कहकर उस दोष को मिथ्या (शुद्ध) करना 'मिथ्याकार' है।
(८) तहक्कार-गुरुजनों के वचनों को, तहत्ति-आप जैसा कहते हैं, वैसा ही है।" कहकर यों सम्मानपूर्वक स्वीकार करना तथाकार है।
(६) अन्भुट्ठाण-गुरुजनों का सत्कार-सम्मान या बहुमान करने के लिए उद्यत रहना, उनके सत्कार के लिए आसन से उठकर खड़ा होना अभ्युत्थान-समाचारी है।
(१०) उपसंपया-शास्त्रीय ज्ञान आदि विशिष्ट प्रयोजन के लिए किसी दूसरे आचार्य के पास विनयपूर्वक रहना 'उपसम्पदा' समाचारी है।
यों दस प्रकार की समाचारी में हृदय से स्थित रहना, सतत निष्ठावान रहना चारित्रशुद्धि का महत्त्वपूर्ण अंग है।२५
(क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ५२ के आधार पर।
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० २७७ के आधार पर २५ (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, तथा उत्तराध्ययनसूत्र अ० २६, गाथा १ से ४ तक देखें।