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________________ ७ चतुर्थ उद्देशक : गाथा ८० से ८३ की अपनी-अपनी जाति (सत्ता) का नाश नहीं होता फिर भी वे परिणामी हैं, यही (परिणामी नित्य) मानना ही जैनदर्शन को अभीष्ट है। लोक को अन्तवान् सिद्ध करने के लिए लोक (पृथ्वी) को सात द्वीपों से युक्त कहना भी प्रमाणविरुद्ध है । क्योंकि इस बात को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। ____ लोकवादियों के द्वारा मान्य अवतार या भगवान् अपरिमितदर्शी होते हुए भी सर्वज्ञ नहीं हैं, इसलिए उनका भी यदि यह कथन हो तो प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि जो पुरुष अपरिमितदर्शी होकर भी सर्वज्ञ नहीं हैं, वे हेय-उपादेय का उपदेश देने में भी समर्थ नहीं है, अतीन्द्रिय पदार्थों का उपदेश देना तो दूर रहा। - लोकवाद मान्य अवतार या तीर्थंकर यदि अपरिमित पदार्थदर्शी या अतीन्द्रिय पदार्थ द्रष्टा है तो उनका सर्व-देश-कालज्ञ होना अत्यावश्यक है। यदि उन्हें कीड़ों की संख्या का उपयोगी ज्ञान भी नहीं होगा तो बुद्धिमान पुरुष शंका करने लगेंगे कि उन्हें उसी प्रकार अन्य पदार्थों का भी ज्ञान नहीं होगा। ऐसे शंकित-मानस उनके द्वारा उपदिष्ट हेयोपादेय में निवृत्त-प्रवृत्त नहीं हो सकेंगे। लोकवादियों का यह कथन भी कोई अपूर्व नहीं है कि "ब्रह्मा सोते समय कुछ नहीं जानता, जागते समय सब कुछ जानता है," यह तो सभी प्राणियों के लिए कहा जा सकता है । तथा ब्रह्मा के सोने पर जगत् का प्रलय और जागने पर उत्पाद (सर्जन) होता है, यह कथन भी प्रमाणशून्य होने से उपादेय नहीं है। ___ वास्तव में लोक का न तो एकान्त रूप से उत्पाद होता है और न ही सर्वथा विनाश (प्रलय)। द्रव्य रूप से लोक सदैव बना (नित्य) रहता है, पर्याय रूप से बदलता (अनित्य) रहता है। लोकवादियों का यह कथन भी छोटे बालक के समान हास्यास्पद है कि पुत्रहीन पुरुष की कोई गति (लोक) नहीं। अगर पुत्र के होने मात्र से विशिष्ट लोक प्राप्त होता हो, तब तो बहुपुत्रवान् कुत्तों और सूअरों से लोक परिपूर्ण हो जाएगा। हर कुत्ता या सूअर विशिष्ट लोक (सुगति) में पहुँच जाएगा, विना ही कुछ धर्माचरण किये, शुभकर्म किये । पुत्र के द्वारा किये गए अनुष्ठान से उसके पिता को विशिष्ट लोक प्राप्त होता हो, तब तो कुपुत्र के द्वारा किये गए अशुभ अनुष्ठान से कुलोक (कुगति) में भी ना पड़ेगा, फिर उस पिता के स्वकृत शुभाशुभ कर्मों का क्या होगा? वे तो व्यर्थ ही जाएँगे? अतः कर्म-सिद्धान्त-विरुद्ध, प्रमाण-विरुद्ध लोकवादीय कथन कथमपि उपादेय नहीं है। 'कुत्ते यक्ष हैं', 'ब्राह्मण देव हैं' इत्यादि लोकोक्तियां भी लोकवाद के युक्ति-प्रमाण शून्य विधान है। अतः ये विश्वसनीय नहीं हो सकते ।१५ कठिन शब्दों की व्याख्या-णिसामिज्जा-सुनना चाहिए, अर्थात् जानना चाहिए। विपरीतपण्णसंभूतंपरमार्थ-वस्तुतत्त्व से विपरीत प्रज्ञा (बुद्धि) द्वारा उत्पन्न-सम्पादित-रचित । अण्णण्णवुतिताणुगं-चूर्णिकार के १५ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ४६ (ख) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या पृ० २६६-२७०
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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