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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा ३३ से ५० ४६. धर्म-अधर्म के सम्बन्ध में अज्ञ (अज्ञानवादी) इस प्रकार के तर्कों से (अपने मत को मोक्षदायक) सिद्ध करते हुए दुःख (जन्म-मरणादि दुःख) को नहीं तोड़ सकते, जैसे पक्षी पीजरे को नहीं तोड़ सकता। ५०. अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हुए और दूसरे के वचन की निन्दा करते हुए जो (मतवादी जन) उस विषय में अपना पाण्डित्य प्रकट करते हैं, वे (जन्म-मरणादि रूप चातुर्गतिक) संसार में दृढ़ता से बंधे-जकड़े रहते हैं। विवेचन–अज्ञानवादियों की मनोदशा का चित्रण-वृत्तिकार के अनुसार ३३वीं गाथा से ५०वीं गाथा तक अज्ञानवाद का निरूपण है, चूर्णिकार का मत है कि २८वीं गाथा से ४०वीं गाथा तक नियतिवाद सम्बन्धी विचारणा है। उसके पश्चात् ४१ से ५०वीं गाथा तक अज्ञानवाद की चर्चा है । परन्तु इन गाथाओं को देखते हुए प्रतीत होता है कि नियतिवादी, अज्ञानवादी, संशयवादी एवं एकान्तवादी इन चारों को शास्त्रकार ने चर्चा का विषय बनाकर जैन-दर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त की कसौटी पर कसा है। सर्वप्रथम ३३वीं गाथा से ४०वीं गाथा तक एकान्तवादी, संशयवादी अज्ञान एवं मिथ्यात्व से ग्रस्त अन्य दार्शनिकों को वन्य मृग की उपमा देकर बताया है कि वे ऐसे मृग के समान हैं .(१) जो असुरक्षित होते हुए भी सुरक्षित एवं अशंकनीय (सुरक्षित) स्थानों को असुरक्षित और शंकास्पद मान लेते हैं और असुरक्षित एवं शंकनीय स्थानों को सुरक्षित एवं अशंकनीय मानते हैं। (२) जो चाहें तो पैरों में पड़े हुए उस पाश-बन्धन से छूट सकते हैं, पर वे उस बन्धन को बन्धन ही नहीं समझते। (३) अन्त में वे विषम प्रदेश में पहुंचकर बन्धन में बंधते जाते हैं और वहीं समाप्त हो जाते हैं । इसी प्रकार के एकान्तवादी अज्ञान-मिथ्यात्व ग्रस्त कई अनार्य श्रमण हैं, जो स्वयं सम्यग्ज्ञान-दर्शनचारित्र से पूर्णतः सुरक्षित नहीं है, जो हिंसा, असत्य, मिथ्याग्रह, एकान्तवाद या विषय-कषायादि से युक्त अधर्म प्ररूपणा को निःशंक होकर ग्रहण करते हैं और अधर्म प्ररूपकों की उपासना करते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं अहिंसा, सत्य, अनेकान्त, अपरिग्रह आदि सद्धर्मों में वे शंकाकुल होकर उनसे दूर भागते हैं । वे सद्धर्म प्ररूपक, वीतराग, सर्वज्ञ हैं या उनके प्रतिनिधि हैं, उनके सानिध्य में नहीं पहुंचते । अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह, तप, संयम, एवं क्षमादि सद्धर्म की प्ररूपणा जिन शास्त्रों में है, उन पर शंका करते हैं, और यह कहते हए ठकरा देते हैं-यह तो असद्धर्म की प्ररूपणा है, इस अहिंसा से तो देश का बे हो जायेगा। इसके विपरीत जिन तथाकथित शास्त्रों में यज्ञीय आरम्भ और पशुबलिजनित घोर हिंसा की प्ररूपणा है, कामना-नामना पूर्ण कर्मकाण्डों का विधान है, हिंसाजनक कार्यों की प्रेरणा है, ऐसे पापोपादान भूत आरम्भों से बिल्कुल शंका नहीं करते. उसी अधर्म को धर्म-प्ररूपणा मानकर अन्ततोगत्वा वे एकान्तवादी, अज्ञानी एवं मिथ्यात्वी लोग घोर पापकर्म के पाश (बन्धन) में फंस जाते हैं जिसका परिणाम निश्चित है-बार-बार जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण । & सूयगडंग सुत्त (मूलपाठ, टिप्पण युक्त) की प्रस्तावना-पृष्ठ ६
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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