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________________ प्रकाशकीय आज विश्व के जन, धन के उपार्जन में अहर्निश संलग्न हैं । धन के उपार्जन में व्यक्ति अपने राष्ट्र ग्राम तथा परिजनों को तो भूल ही जाता है, साथ ही साथ स्वतः को भी विस्मृत कर जाता है । उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि मैं मानव हूँ तथा मानवता के भाव मेरे में सतत विद्यमान रहने चाहिये । वह धनोपार्जन में इतना तल्लीन हो जाता है कि जीवन की वास्तविकता को भी विस्मृत कर देता है । धन का उपयोग राष्ट्र, समाज, परिजन के चहुँमुखी विकास में होना चाहिये । धन का उपयोग केवल 'स्व' के स्वार्थ तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये । सतत उपयोग के बाद भी न्याय एवं नीति से धन का संग्रह होता है तो कविवर बिहारी की इस उक्ति को ध्यान में ले लीजिये - खाये खरचे जो जुरै तो जोड़िये धन करोरी । जैन दर्शन में इस पर अधिक गहराई से चिंतन किया गया है । यहाँ कहा गया है कि परिग्रह का परिमाण करो तथा इच्छाओं की भयावह अटवी से अपने आप को मुक्त करो तथा जो अब तक संग्रह किया है, उस धन का भी उचित वितरण करो । भगवान् महावीर ने कहा हैसंविभाग नहीं करने वाले को मोक्ष नहीं है। अपने लिये तो हर व्यक्ति जीता है किन्तु जो सारे विश्व को ही कुटुम्ब मानकर चलता है, वह व्यक्ति धन्य है । कविवर्य, राष्ट्रसन्त, उपाध्याय श्री अमरमुनिजी म. सा. ने समय समय पर अपने प्रवचनों में अपरिग्रह दर्शन की विशद व्याख्या की है, उन्हीं के प्रवचनों को पण्डित रत्न श्री विजयमुनिजी म. सा. ने vii
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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