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रहता है और पुत्र ने यदि सोने का महल बनवा लिया है, तो भी उसे ईर्ष्या नहीं होती, उसे बुरा नहीं लगता । वह पड़ौसी का सोने का महल देखकर भले ही सहन न कर सके, उसके निर्माण में विघ्न भी डाले, पर पुत्र का सोने का महल देखकर अतिशय आनन्द का ही अनुभव करता है।
पुत्र के मन में भी यही बात रहती है । वह जानता है, पिता जो कुछ भी कर रहा है, वह दुनियाँ के लिए नहीं कर रहा है, किसी गैर के लिए नहीं कर रहा है। आखिर पिता को जो भी मिल रहा है, वह आगे चलकर पुत्र को ही तो मिलना है। इस रूप में, भारत में, पिता-पुत्र के
जहाँ कहीं भी बीच, बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रहे हैं । इतने
परिग्रह की वृत्ति बढ़ी घनिष्ठ कि इससे अधिक घनिष्ठता अन्यत्र
और इच्छाओं का कहीं भी दुर्लभ है । किन्तु धन्य रे परिग्रह !
निरंकुश प्रसार हुआ इस परिग्रह ने अमृत को भी विष बना
| कि वहाँ अमृत भी दिया । जहाँ कहीं भी परिग्रह की वृत्ति बढ़ी
विष बन गया। और इच्छाओं का निरंकुश प्रसार हुआ कि
6 वहाँ अमृत भी विष बन गया, उस माधुर्य में भी कटुता पैदा हो गई और संहार मच गया । परिग्रह समस्त पापों की जड़ है।
अब श्रेणिक और कोणिक की बात सुनिए- पिता श्रेणिक वृद्ध हो गए हैं, और पुत्र कोणिक जवान है, वह कुढ़ रहा है । राज्य करने की लालसा उसके मन में जाग उठी है, वह चाहता है कि सिंहासन जल्दी खाली हो । वह सोचता है, दुर्भाग्य है कि पिता नहीं मर रहे हैं ।
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