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________________ जानना चाहिए कि जैन धर्म आदर्शवादी भी है और यथार्थवादी भी । जीवन के लिए दोनों सिद्धान्त उपयोगी रहे हैं । __ जैन धर्म का आदर्शवाद यह है कि वह हमारे समक्ष एक महान् जीवन का चित्र उपस्थित करता है । वह साधक को दौड़ने के लिए कह रहा है और कह रहा है कि जहाँ तू है, केवल वहीं तू नहीं है। आज जहाँ तेरी स्थिति है, वही तेरी मंजिल नहीं है, तुझे आगे जाना है, बहुत आगे जाना है, इतने आगे जाना है कि जहाँ राह ही समाप्त हो जाती है। तूने जो कुटुम्ब-परिवार पा लिया है, उसी का उत्तरदायित्व तेरे लिए नहीं है । तेरी यात्रा वहीं तक सीमित नहीं है । तेरी यात्रा बहुत लम्बी है । तेरी यात्रा उस छोटे से घेरे से निकल कर अपने आपको विशाल संसार में घुला-मिला देने की है। यही आत्मा के विराट् स्वरूप की प्राप्ति है । जब मनुष्य इतना विशाल और इतना महान् बन जाता है कि सारे संसार में घुल-मिल जाता है, क्षुद्र से विराट् बन जाता है, और उसके मानस-सरोवर में उठने वाली अहिंसा और प्रेम की लहरों से समग्र संसार परिव्याप्त हो जाता है, तब उसमें भगवत्स्वरूप जाग जाता कल्पना के आकाश है । जिसे उस भगवत्स्वरूप की प्राप्ति हो में तीव्र वेग से जाती है, उसे हम अर्हत् या ईश्वर के रूप में उड़ने वाले की पूजने लगते हैं । यह जैनधर्म का आदर्शवाद | अपेक्षा, धरती पर है और बहुत ऊँचा आदर्शवाद है । विगत चार कदम चलने काल के विकारों को जीतना ही हमारा | वाला कहीं अधिक आदर्श है। अच्छा है। किन्तु जैन धर्म कोरा आदर्शवादी नहीं, यथार्थवादी भी है । कोरा आदर्शवाद खयाल ही खयाल होता है । र
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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