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वस्तुतः नरक और स्वर्ग क्या है ? अपने स्वार्थ एवं अपनी तृष्णाओं की आग को अपने दुःखों का कारण न मानकर, उसका दोष दूसरे के सिर पर रखना, यह अज्ञान ही नरक है और सत्य को स्वीकार करके उसे आचरण का रूप देना, यही स्वर्ग है। एक विचारक का कहना है कि “जब मनुष्य इस बात को स्वीकार कर लेता है कि मेरी समस्त अशान्ति और सब दुःख मेरे अपने ही स्वार्थ के कारण है तो वह स्वर्ग के द्वार से दूर नहीं है।'
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