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जो व्यक्ति समाज के इस धरातल से ऊपर उठकर व्यक्ति के गुणों का वास्तविक मूल्यांकन करने की योग्यता रखता है, वह धन और ऐश्वर्य के बढ़ने पर भी विनम्र रहता है । चूंकि वह स्वयं भी जीवन की इसी राह पर ठोकर खा चुका है, वह जीवन के स्वरूप और आयाम के बारे में जान चुका है, इसलिए धन, ऐश्वर्य और पद के साधन पाकर भी वह उनका गुलाम नहीं होता, बल्कि वह उन्हीं को अपना दास बनाए रखता है।
एक और सेठ की बात है। एक दिन वह किसी गरीब भाई का निमन्त्रण स्वीकार कर उसके घर पर गया । साथ में उसका एक छोटा चचेरा भाई भी था । निमन्त्रण देने वाले गरीब के टूटे-फूटे घर को देखकर सेठ के भाई ने कहा- 'कहाँ नरक में आ गिरे ?' इस पर सेठ ने कहा- 'व्यक्ति की सूरत और मकान को देखने के बदले उसके मधुर भाव और मन को देखना चाहिए । निमन्त्रण देने वाला टूटा-फूटा मकान नहीं है, बल्कि वह व्यक्ति है, जिसने शुद्ध प्रेम से, भाव से निमन्त्रण दिया है।'
सेठ का विचार कितना सुलझा हुआ है । आज लोग जीवन-पथ पर चलते हैं, जीवन के दिन गुजारते हैं, किन्तु वास्तव में जीवन के आदर्शपूर्ण व्यवहारों की धरती पर न उन्हें ठीक तरह चलना आता है, न जीवनयापन करना । वे जिन्दगी को ठीक ढंग से समझ ही नहीं पाते । उसका विश्लेषण और विवेचन इनके पास नहीं होता । बड़ी अजीब बात तो यह लगती है कि लोग परलोक में स्वर्ग की संकरी गली में चलने की लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं, पर अभी तक वर्तमान जिन्दगी के महापथ पर लड़खड़ाते कदमों से चल रहे हैं ।
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