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व्यक्ति बाह्य इच्छाओं की जगह अन्दर की इच्छाओं का दास बन जाता है । जो व्यक्ति यहाँ पर हजारों लाखों का दान दे देते हैं, धन की इच्छा से अपना सम्बन्ध समाप्त कर लेते हैं, परन्तु वे परलोक में उससे अनेक गुणा अधिक प्राप्त करने के सपने देखते हैं । वे यहाँ जो कुछ भी त्याग करते हैं, परलोक में सुख भोगने की प्रबल आकांक्षाओं से पीड़ित रहते हैं । त्याग की यह विचित्र स्थिति सुलझाए नहीं सुलझ रही है । यहाँ उपवास में पानी तक का त्याग करते हैं और लगता है, जैसे पिपासा पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली, परन्तु अन्तर में मन स्वर्ग-सुखों की मादक
मदिरा पीने को लालायित रहता है । साधक
पर-स्त्री का त्याग कर देता है, यहाँ तक कि स्वर्ग के मोहक
अपनी स्त्री का भी त्याग कर ब्रह्मचर्य की ऐश्वर्य और सुन्दर
| साधना में लग जाता है, किन्तु अन्दर में मन अप्सराओं की प्राप्ति के लिए यहाँ का
स्वर्ग की अप्सराओं के पीछे चक्कर काटता यथोक्त दान और
रहता है । यह तो ऐसा हुआ कि वर्तमान में ब्रह्मचर्य सट्टेबाजी ही
जो ब्रह्मचर्य पाला जाता है, उसका उद्देश्य तो है।
भविष्य में यहाँ से भी वहाँ व्यभिचार की प्रबल 6
आकांक्षा है । स्पष्ट है कि इस प्रकार का
- वैराग्य, वास्तव में वैराग्य नहीं है। यह तो एक प्रकार का सट्टा (जुआ) हुआ । स्वर्ग के मोहक ऐश्वर्य और सुन्दर अप्सराओं की प्राप्ति के लिए यहाँ का यथोक्त दान और ब्रह्मचर्य सट्टेबाजी ही तो है। यह तो वासना के लिये वासना का त्याग हुआ । भोग के लिए भोग का त्याग हुआ । विचारणीय बात तो यह है कि यह त्याग है या और कुछ है ? स्थिति में अन्तर इतना ही है कि कुछ लोग वर्तमान संसार की भोग-वासनाओं के गुलाम होते है, तो कुछ लोग
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