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कृषि के अतिरिक्त अन्य साधन नहीं हो सकता । एक समय ऐसा आया कि कुछ विचारकों ने उस युग के जन-मानस में अहिंसा की एक धुंधली तस्वीर खड़ी कर दी । परिणामतः उन्होंने जिन्दगी के हर मोर्चे पर पाप ही पाप देखना प्रारम्भ कर दिया । आरम्भ-समारम्भ का परित्याग अच्छी बात है, पर खेती में भी महापाप समझना और इसे छोड़कर भाग खड़े होना- यह जब प्रारम्भ हुआ तब कृषि का धन्धा हमारी नजरों में हेय हो गया । हमारा सामाजिक दृष्टिकोण यह बन गया कि कृषि का धन्धा निकृष्ट कोटि का है, अतः हेय है । कृषि द्वारा अन्न का उत्पादन हो, इसके पीछे हमारा अहिंसा का दृष्टिकोण यह था कि मांसाहार की प्रवृत्ति लोगों में बन्द हो और वे कृषि की ओर आकृष्ट हों । जब कृषि जैसे सात्त्विक कर्म को अपनाया जाएगा, तभी मांसाहार जैसे भयंकर पाप से हम बच सकेंगे । मांसाहार छोड़ना, यह हमारी सांस्कृतिक जीवन यात्रा का प्रारंभिक उद्देश्य है और इस उद्देश्य की पूर्ति कृषि-कर्म से ही हो सकती है । इसी आधार पर जैन-संस्कृति में कृषि-कर्म को अल्पारम्भ और आर्य-कर्म कहा गया है ।
अभिप्राय यह है कि अहिंसा की स्मृति जितनी हमारी आगे बढ़ी, उसके साथ-साथ उसमें एक धुंधलापन भी आगे बढ़ता गया और उसमें भी हमारा जो मूल अभिप्राय था, वह समय के साथ-साथ क्षीण होता चला गया । इसलिए आगे चलकर कुछ लोगों ने कृषि को महारम्भ स्वीकार कर लिया और जब उसे महारम्भ स्वीकार कर लिया तो उसे छोड़ने की बात भी लोगों के ध्यान में आने लगी। लोग अपनी बात सिद्ध करने के लिए आगम का आधार तलाशने लगे, परन्तु आगम में जो महारम्भ का फल बताया है, उसमें कहा गया है कि महारम्भ नरक में जाने का कारण बनता है । अब विचार कीजिए कि जब कृषि को
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