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महाभारत के बाद इतने बड़े भयंकर नरसंहार की दूसरी घटना नहीं मिलती । इसके मूल में क्या था ? एक अनियंत्रित इच्छा, एक उद्दाम लालसा, जिसका जीवन के लिए कोई महत्व नहीं था, आवश्यकता नहीं थी । विचार कीजिए, कोणिक के साम्राज्य में हाथियों की कमी थी क्या ? उसके अलंकार गृह में हारों की कमी
6 थी क्या ? फिर युद्ध किसलिए हुआ ? हार , और हाथी एक स्थूल चीज थी । वास्तव में
धन, धरती और
नारी की लिप्सा ही युद्ध उसकी नग्न इच्छाओं का ही प्रतिफल
तो युद्धों का मूल था । अनावश्यक कामनाओं का यह द्वन्द्व
बीज रहा है। लाखों-करोड़ों मनुष्यों के रक्त से भी शांत नहीं हुआ । धन, धरती और नारी की लिप्सा ही तो युद्धों का मूल बीज रहा है । दुराशा में सर्वनाश :
कोणिक के जीवन के प्रसंग में एक बात और सामने आती है । वह यही है कि अनावश्यक इच्छाएँ जीवन के लिए सर्वथा अनुपयोगी है । यह संसार के विनाश का कारण होती है, सर्वनाश का ही कारण बनती है, निर्माण का नहीं । अतः इच्छाओं का नियन्त्रण आवश्यक है ।
वैशाली-विजय के बाद कोणिक की उद्दाम इच्छाएँ चक्रवर्ती बनने का स्वप्न देखने लगी । भगवान् महावीर के समक्ष उसने जब अपना यह दुःस्वप्न प्रकट किया, तो भगवान् ने उसे समझाया- 'कोणिक, यह आशा दुराशामात्र है । बारह चक्रवर्ती हो चुके हैं, अब इस अवसर्पिणी काल में कोई चक्रवर्ती सम्राट् नहीं होगा । चक्रवर्ती बनने का दुःस्वप्न छोड़ दो । जो तुम्हारे दुष्कर्मों का प्रतिफल है, उसे शान्त-भाव से स्वीकार करो !' किन्तु कोणिक न माना । आप कहेंगे कि जब वह भगवान् का भक्त था,
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