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जैन-धर्म का आदर्श केवल कल्पना का आदर्शवाद नहीं है। वह आदर्श के साथ यथार्थ का भी समन्वय करता है । वह निवृत्ति के साथ यथार्थ को भी स्वीकार करता है। वह साधक के लिए आवश्यकताओं को पूरा करना परिग्रह नहीं मानता । वह आवश्यकता से नहीं, इच्छा से निवृत्त होने का उपदेश देता है। संसार से मुक्त होने की साधना करने वाला साधु भी आवश्यकताओं का पूर्णतः त्याग नहीं कर सकता। इसलिए आगम में वस्तु एवं आवश्यक पदार्थों को परिग्रह नहीं कहा है। मूर्छा और आसक्ति को परिग्रह कहा है।