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________________ न रह सकता हो, ऐसी भी कोई बात नहीं थी। फिर भी उसने विश्वविजय के लिए अभियान किया और एक-एक करके अनेक देशों को जीत लिया । मगर 'जहा लाहो तहा लोहो' अर्थात् ज्यों-ज्यों लाभ होता गया, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता गया और असंतोष बढ़ता गया, उसकी फौजें भी बढ़ती चली गयी आखिर उसका असंतोष उसे रूस में ले गया और वहीं उसके लोभ ने उसका खात्मा कर दिया । - अभिप्राय यह है कि अनेक देशों को यह कहना नितांत जीत लेने पर भी हिटलर अपनी लोभ वृत्ति को भ्रम-पूर्ण है कि संतोष नहीं जीत सका था । इसी से अंदाजा लगा | नपुसंकों का शास्त्र लीजिए कि उसे जीतने के लिए कितने बड़े | है. वस्ततः संतोष शौर्य की आवश्यकता है ? ऐसी स्थिति में यह असाधारण वीरता का कहना नितांत भ्रम-पूर्ण है कि संतोष नपुंसकों | परिचायक है। का शास्त्र है वस्तुतः संतोष असाधारण वीरता का परिचायक है । और वही समष्टिगत और व्यष्टिगत जीवन को सुखमय बना सकता है। इस संतोष का आविर्भाव इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने पर होता है और इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए आवश्यकता है कि उसकी प्रथम मंजिल इच्छा परिमाण पर आप अपना सुदृढ़ कदम रखें । अगर आप अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहते हैं, शांति पूर्ण और निराकुल बनाना चाहते हैं, तो आपके लिए एक ही मार्ग है- आप इच्छा परिमाण के पद पर चलें । जो इस पद पर चले हैं, उन्होंने अपना कल्याण किया है और जो चलेंगे, वे भी अपना कल्याण करेंगे और दूसरों का भी । यही वीर प्रभु का पथ है । यही वीतराग मार्ग है । यही तो साधना का पंथ है। दिनांक 21.11.1950, ब्यावर-अजमेर 6 174
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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