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अत्याचारों पर जब विचार करते हैं, तब कभी-कभी ऐसा प्रतीत होने लगता है कि उन अन्यायों की आज, इस कलियुग में पुनरावृत्ति भी नहीं हो सकती । दुर्योधन की राजसभा में, भारत के प्रमुख पुरुषों के समक्ष और धर्मराज के भी समक्ष, द्रौपदी जैसी अत्यन्त प्रतिष्ठित, राज-तनया और राज-पत्नी महिला को नंगी करने की चेष्टा की गई । क्या आज
-शिष्ट पुरुषों के समाज में ऐसा किया जा
| सकता है ? फिर भी वह द्वापर था और हमारे जीवन में | आज घोर कलियुग है। काल नहीं, मनोवृत्ति सच्चाई है, तो आज मुख्य है । भी सतयुग है और
सतयुग और कलियुग मनुष्य द्वारा बुराई है, तो
कल्पित हैं और केवल व्यवहार के लिए गढ़ कलियुग है।
लिए गए हैं । अगर हमारे जीवन में सच्चाई है, तो आज भी सतयुग है और बुराई है, तो
कलियुग है । वास्तव में हमारे जीवन ही सतयुग और कलियुग हैं । यह तो है नहीं कि सतयुग में और चाँद-सूरज हों, कलियुग में और हों । वहीं चाँद-सूरज हैं, वही हवाएँ हैं । प्रकृति के नियम अटल हैं । वही समाज है, वहीं राष्ट्र है।
बहुधा हम जीवन की अच्छाइयों को प्राप्त करते समय युगों पर अड़ जाते हैं । कहने लगते हैं- कलियुग है भाई, कलियुग है । अरे, यह तो पाँचवा आरा है । इसमें तो कोई विरला ही पाप से बच सकता है । इस प्रकार कहकर हम अपने जीवन की उज्ज्वलताओं के प्रति निराश और हताश हो जाते हैं । अपनी दुर्बलताओं का प्रसार होने देते हैं । बहुत बार अपने दोषों को युग के आवरण में छिपाने का प्रयत्न करते हैं, अपनी मानी हुई अक्षमता के प्रति सहनशील बन जाते हैं । बहुत बार देखा जाता है कि एक मनुष्य जब किसी बुराई में पड़ा
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