SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुधर्मा स्वामी - क्या रोजगार करते हो ? वृद्ध- महाराज, मैं लकड़ियाँ काट कर बेचता हूँ । सुधर्मा स्वामी - रहने को मकान है ? है वृद्ध - हां, उसे मकान ही कहना चाहिए । टूटा - फूट खंडहर - सा । उस पर घास-फूस छाकर ठीक कर लेता हूँ । बरसात का मौसम आता है, तो खराब हो जाता है और जब खराब हो जाता है, तो फिर छा लेता हूँ । बस, जिन्दगी में यही काम किया है और यही कर रहा | जीवन यों ही बीत रहा है । सुधर्मा स्वामी - भैया, क्या इसी तरह सारा का सारा जीवन समाप्त कर दोगे ? परलोक के लिए भी कुछ कमाओगे या नहीं ? कुछ सत्कर्म नहीं करोगे, तो परलोक में क्या गति होगी ? वृद्ध - महाराज, सारा जीवन तो रोटी की समस्या में ही बीता जा रहा है । और फिर कुछ जानता भी नहीं कि परलोक के लिए क्या करूँ । मुझ जैसे गरीब को कौन परलोक के लिए शुभ राह बतलावे । कौन इस जरा - जीर्ण बुड्ढ़े को आश्रय दे ? बुड्ढ़े की दुर्दशा देखकर उसके आन्तरिक संताप से सुधर्मा स्वामी का नवनीतोपम मृदुल हृदय पिघल गया । उन्होंने करुणा प्रेरित होकर कहा - भद्र, तुम चाहो तो संघ तुम्हें शरण देगा । तुम भिक्षु बनकर परलोक सुधार सकते हो । सुधर्मा स्वामी की यह स्वीकृति वृद्ध के लिए दिव्य वरदान थी । वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और स्वामी जी के साथ हो गया । उन्होंने वृद्ध को शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया । क्या सुधर्मा स्वामी का बनाया हुआ वह शिष्य परिग्रह था ? 167
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy