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एक बहुत पुरानी घटना है । किसी राजकुमार ने दीक्षा ले ली और सब कुछ छोड़ दिया । अपने विपुल वैभव को त्यागकर वह साधु बन गया । लोग उसके इस त्याग की प्रशंसा करने लगे । तब राजकुमार ने कहा- भाई, क्या कह रहे हो, मैंने क्या छोड़ा है, कुछ भी तो नहीं छोड़ा ।
लोगों ने कहा- आपने बहुत बड़ा त्याग किया है । इतना महान् त्याग कौन कर सकता है । दुनियाँ तो एक-एक पैसे के लिए मरती है और उसे पाकर छाती से चिपटा लेती है । आपने इतना बड़ा वैभव त्याग दिया है, तथापि कहते हैं कि मैंने त्यागा ही क्या है ? यह तो आपकी और भी महानता है !
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तब राजकुमार ने कहा- इसमें मेरी कोई महत्ता नहीं है । किसी के पास जहर की एक छोटी-सी पुड़िया है और दूसरे के पास जहर की बोरी भरी पड़ी है । दोनों को पता नहीं था कि यह जहर है और वे उसे संभाले रखे रहे । जब उन्होंने समझा कि जिसे हम अमृत समझ कर सहेज रहे हैं, वह वास्तव में अमृत नहीं, विष है, तब क्या वे उसे त्याग करने में देर करेंगे ? पुड़िया वाला पुड़िया को फैंक देगा, बोरी वाला बोरी को त्याग देगा । अब लोग कहें कि बोरी वाले ने बड़ा भारी त्याग किया है, तो वह त्याग काहे का ? पुड़िया जहर की थी, तो बोरी भी जहर की ही थी । उसे छोड़ा तो क्या बड़ी चीज छोड़ी ? तो मैंने जो त्यागा है, जहर ही तो त्यागा है और अमर्त्य बनने के लिए त्यागा है । तब मैंने कौन - सा बड़ा त्याग किया ।
हम इस पर विचार करते हैं, तो सच्चाई तैरती हुई मालूम होती है । वह सच्चाई उस जनता के लिए निकल कर आती है, जो कहती है कि अमुक का त्याग महान् है, आर्दश है, अमुक ने हजारों और लाखों का त्याग किया है !
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