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________________ यहाँ वस्तुओं के परिमाण की बात नहीं, इच्छाओं के परिमाण की बात आई है। सर्वप्रथम मनुष्य के मन में इच्छा जागृत होती है, संकल्प उठता है और उसके अनुसार वह दौड़ लगाता है एवं वस्तुओं का संग्रह करता है । अर्थात् पहले इच्छा होती है, फिर प्रयत्न होता है और उसके बाद वस्तुओं को इकट्ठा करने का प्रश्न आता है । परिग्रह के संचय का यह एक क्रम है। इसका अर्थ यह है कि यदि इच्छा ही न रहे, तो प्रयत्न भी नहीं होगा और जब प्रयत्न न होगा, तब वस्तुओं को इकट्ठा करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होगा । इस प्रकार सब से बड़ा और मूल-भूत परिग्रह इच्छा ही है । जहाँ इच्छा है, वहाँ प्राप्त और अप्राप्त-सभी वस्तुएँ परिग्रह ही हैं । कहा भी है मूर्छा-च्छन्न-धियां सर्व, जगदेव परिग्रहः । मूर्छया रहितानांतु, जगदेवापरिग्रहः ।। जिसकी मनोभावना आसक्ति से ग्रस्त है, उसके लिए सारा संसार ही परिग्रह है, जो मूर्छा-ममता एवं आसक्ति से रहित है, उसके अधीन यदि सारा जगत् भी हो, तो भी वह परिग्रह नहीं है । जहाँ-जहाँ मूर्छा है, वहीं-वहीं परिग्रह है। एक भिखारी है और उसके पास कोई खास चीज नहीं है, किन्तु उसने अगर इच्छाओं को नहीं छोड़ा है, परिग्रह की वृत्ति को नहीं त्यागा है, इसके विपरीत वह सारे संसार की चीजों को चाहता है, तो सारा संसार ही उसके लिए परिग्रह है । वह इन्द्र नहीं है, चक्रवर्ती सम्राट् भी 154
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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