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अनर्थकर समझ लेगा, वह उससे दूर ही भागने का प्रयत्न करेगा । अगर पारिवारिक आवश्यकताएँ उसे बाधित करेंगी, तो भी वह अनावश्यक परिग्रह से तो बचता ही रहेगा, उसके मन में धन की तृष्णा नहीं होगी । वह धन से प्रेम नहीं करेगा, भले ही कटु औषध के समान उसका सेवन करना पड़े।
चित्तेऽन्तर्ग्रन्थ-गहने बहिर्निर्ग्रन्थता वृथा। यदि चित्त में से परिग्रह सम्बन्धी आसक्ति न निकली या कम न हुई और वह ज्यों की त्यों बनी रही, तो फिर ऊपर से अपरिग्रह व्रत या परिग्रह परिमाण व्रत को अंगीकार कर लेना भी कुछ अर्थ नहीं रखता । उसका व्रत लेना, अर्थ-हीन है।
ऐसा सोचकर, जिन्हें वैभव प्राप्त है, उन्हें अपनी इच्छाओं पर ब्रेक लगाना चाहिए और जिनके पास कुछ नहीं है, उन्हें अपना जीवन चलाने के लिए कुछ मर्यादा करके शेष पर ब्रेक लगा लेना चाहिए । जैन धर्म तो अनेकान्तवाद पर चलता है। उसके यहाँ एकान्त नहीं है। जिन्हें सुखमय जीवन व्यतीत करना हो और स्वर्गीय सुखों का झरना यहीं बहाना हो, उन्हें जैनधर्म के अपरिग्रह व्रत के राजमार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए ।
दि. 20.11.50 ब्यावर (अजमेर)
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