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________________ रखते हुए भी परिग्रही नहीं है । ज्ञातपुत्र ने मूर्छा-आसक्ति को परिग्रह कहा है । ममता-भाव को परिग्रह कहा है । आज विश्व में और विशेषतः इस देश में भगवान् महावीर के इस अपरिग्रह-व्रत का पालन करने वालों की बहुत आवश्यकता है । जो धनवान हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि आखिर वे किस प्रयोजन से अधिक धन कमा रहे हैं ? वे अधिक धन कमा कर उसका क्या करेंगे ? क्या समस्त देश हमारा कुटुम्ब नहीं है ? यदि समस्त देश हमारा विशाल कुटुम्ब ही है और वास्तव में है भी तो देश के हित के लिए, आवश्यकता पड़ने पर क्या अपना सर्वस्व त्याग देने के लिये तैयार नहीं रहना चाहिये ? ऐसा नहीं कि धन कमा कर वह साँप की तरह अकेला ही उस पर बैठ जाए और उसे जरा भी इधर-उधर न होने दे । परिग्रह की मर्यादा करते समय उसे समझ लेना चाहिए कि मैं भविष्य में मर्यादा से अधिक किसी भी वस्तु की कामना नहीं करूँगा । मर्यादा करते समय उसके पास जितनी धन-सम्पत्ति है, उससे अधिक की भी वह मर्यादा कर सकता है और जितनी है उतनी की भी ! मान लीजिए, एक गरीब है और उसे रोटी के भी लाले पड़े हुए हैं । वह मर्यादा करेगा, तो यही सोचकर करेगा कि अभी मेरे पास कुछ भी नहीं है, किन्तु सम्भव है, भविष्य में सम्पत्ति हो जाए । यही सोचकर वह एक लाख की सम्पत्ति की मर्यादा करता है और संकल्प कर लेता है कि एक लाख से अधिक सम्पत्ति की मैं इच्छा नहीं करूँगा । तो वह अपनी सीमा-रहित कामनाओं को सीमित करता है और वासनाओं के समुद्र में से एक बूंद के बराबर वासना रख छोड़ता है । दुनियाँ के अपरिमित धन में से अपने निर्वाह के लिए परिमित धन की ही मर्यादा करता है और शेष धन के प्रति ममत्व-हीन बन जाता है । उस शेष धन की 142
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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