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________________ या सहयोगी बनकर भी जी सकता है। यदि हम गाय की सेवा करके दूध का कुछ हिस्सा प्राप्त कर लेते हैं, तो यह परस्परोपग्रह है । इसके विपरीत गाय का मांस खाना 'जीवो जीवस्य जीवनम्' है । इस प्रकार भगवान् महावीर ने केवल त्याग का उपदेश नहीं दिया, किन्तु मानव-जीवन के सुख-पूर्वक निर्वाह के लिए एक नया दृष्टिकोण भी दिया । किन्तु परस्परोपग्रह का सिद्धान्त बताकर ही वे मौन नहीं रहे । उसे जीवन में उतारने के लिए उन्होंने एक नया सिद्धान्त उपस्थित किया और वह है- अपरिग्रह । व्यक्ति, समाज या राष्ट्रों में परस्पर संघर्ष का कारण यह नहीं है कि उनके पास निर्वाह के साधनों की कमी है। संसार की जनसंख्या जितनी है, उसे देखते हुए उपज कम नहीं है । फिर भी कृत्रिम अभाव की सृष्टि की जाती है । एक व्यक्ति आग तापने के लिए दूसरे की झोंपड़ी को जला डालता है । स्वयं सारा जीवन और बेटे, पोते-पड़पोतों तक निश्चिंत बनने के लिए पड़ोसी के भूखे बच्चों के मुँह से रोटी छीन लेता है । जब तक इस प्रकार संग्रह-बुद्धि बनी रहेगी, अहिंसा और सत्य के उपदेश जीवन में नहीं उतर सकते । इसीलिए भगवान् महावीर ने अपरिग्रह पर जोर दिया है। इसकी व्याख्या कई प्रकार से की जाती है । यदि समाज को सामने रखा जाए तो इसका अर्थ है- संचय का अभाव । इसका अर्थ हैअपनी आवश्यकताओं को कम करके दूसरों की सुख-बुद्धि में सहायक होना । आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो इसका अर्थ है- स्व को घटाते-घटाते इतना कम कर देना कि पर ही रह जाए, स्व कुछ न रहे । उपरोक्त व्यवस्था बौद्ध-दर्शन की है । वेदान्ती इसी को दूसरे रूप में प्रस्तुत करता है । वह कहता है, स्व को इतना विशाल बना दो कि
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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