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________________ सत्य दर्शन / ६७ जीवन ही गुजारता रहता । मगर शास्त्र बतलाता है कि एक बार नारकीय जीवन की स्थिति-मर्यादा पूर्ण होने पर जीव वहाँ से बाहर आ ही जाता है, वह नरक से निकल कर उसी क्षण दोबारा नरक में जन्म नहीं लेता। अभिप्राय यह है कि आत्मा विकास की ओर आना चाहती है। वह नीचे चली गई, तो कर्मों को भोगने के बाद फिर ऊपर आना चाहती है, और आ भी जाती है। आत्मा की परिणति कुछ ऐसी है जहाँ कहीं भी वह जाता है, समझता है कि वह विकास की ओर जा रहा है। राजा श्रेणिक और नरक : विचार कीजिए राजा श्रेणिक थे और उन्हें तीर्थंकर बनना था। भविष्य में उन्हे तीर्थंकर बनना था, तो वे नरक में क्यों गए? कारण यही कि वे जिन कर्मों के भार से अपवित्र थे, जो कर्म उन्हें तीर्थंकर बनने से रोकते थे, उसके विद्यमान रहते वे तीर्थंकर नहीं बन सकते थे। ऐसी स्थिति में नरक जाने का प्रयोजन एक प्रकार से यही हुआ कि आत्मा पर कर्मों का जो भार है, कर्मों की अपवित्रता का जो बोझा है, उसे हटाकर-कर्मों को भोगकर, आत्मा को शुद्ध और हल्का बनाया जाए। इसी दृष्टि से आत्मा नरक में पहुँची है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि नरक में जाने से आत्मा का यह प्रयोजन आप ही आप सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार आत्मा चाहे नरक में जाए, चाहे अन्यत्र कहीं भी जाए, वह शुद्धि की ओर जाता है। भगवान् महावीर का दर्शन है कि-"हें साधक, तेरे ऊपर जो आपत्तियाँ आ रही हैं, तुझे संकट चारों ओर से घेर कर खड़े हैं, तब भी तू उदास मत हो, निराश मत हो। जितनी आपत्तियाँ और मुसीबतें तेरे सामने हैं, सब तेरी शुद्धि के लिए हैं, उन्हें वीरतापूर्वक, विवेक के साथ सहन करके तू शुद्ध हो रहा है, निखर रहा है, क्योंकि तेरा पाप निकल रहा है, धुल रहा है। वस्त्र मैला है, तो उसकी घिसाई हो रही है और डंडे पड़ते हैं तो उसको रोना नहीं है। जो भी मुक्का-मुक्की हो रही है और निचोड़ा जा रहा है, वह सब उसकी शुद्धि के लिए ही है, वस्त्र को फाड़ने के लिए नहीं है । मैल के एक-एक अंश को हटाने के लिए उसे पछाड़ा जा रहा है। इसी प्रकार साधना के मार्ग में जो कुछ भी कष्ट और संकट आते हैं, जो आपत्तियाँ और मुसीबतें आकर पड़ती हैं, वे सब सहज भाव में आत्मशुद्धि की प्रेरणा के लिए हैं, आत्मा के मैल को धोने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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