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५४ / सत्य दर्शन
हिरण्मयेन पात्रेण, सत्यस्य पिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन्नपावृणु, सत्यधर्माय दृष्टये ॥
सुवर्णमय पात्र से सत्य का मुहँ ढका हुआ है । यहाँ सुवर्ण - से अभिप्राय है- अज्ञानमय मान्यताएँ। यह मान्यताएँ ही सोने का ढक्कन हैं, और सत्य उन्हीं के नीचे छिपा रहता है ।
- ईशावास्योपनिषद्
कल भी मैंने इसी सम्बन्ध में विचार किया था। कहाँ तक स्पष्टीकरण हुआ है या नहीं हुआ है, नहीं कहा जा सकता। हमारा पुरुषार्थ तो केवल पुरुषार्थ है । उसकी सार्थकता सत्य-परमात्मा के चरणों में श्रद्धाञ्जलि चढ़ाने में है। हमें जो भी ज्ञान प्राप्त हुआ है, प्रामाणिकता के साथ, शुद्ध हृदय से, उसके आधार पर हमें सत्य को समझने का प्रयास करना है, निर्णय करना है, किन्तु आखिरी निर्णय तो प्रभु का ही निर्णय है। हमारा निर्णय अन्तिम नहीं हो सकता ।
शुद्ध हृदय कह लीजिए या सम्यग् दृष्टि कहिए, अभिप्राय एक ही है। इसके अभाव में सत्य का पता नहीं लग सकता ।
एक तरफ मिथ्यादृष्टि है और दूसरी तरफ सम्यग्दृष्टि । मिथ्यादृष्टि का समस्त ज्ञान, अज्ञान है । उसको जो मतिज्ञान होता है; अर्थात् पाँचों इन्द्रियों से ज्ञान होता हैहै-वह कानों से सुनता है, नाक से सूँघता है, जीभ से चख लेता है, आँखों से देखता है और शरीर से स्पर्श करता है। पाँचों इन्द्रियों से होने वाला यह ज्ञान मतिज्ञान की धारा है। इन पाँचों से अलग एक ज्ञान और है, जो इनके पीछे भी रहता है और अलग भी रहता है। हमारे इस शरीर में एक हजरत मुंशी रहते हैं और वे सब का लेखा-जोखा रखते हैं। उनका चिन्तन-मनन बराबर चालू रहता हैं। वह इन्द्रियों के साथ और अलग भी चल पड़ते हैं । उनका नाम 'मन' है। इस प्रकार पाँच इन्द्रियाँ और छठा मन, बस, यही ज्ञान के साधन हमारे पास हैं ।
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मनुष्य विचारता है कि मैं ज्ञानी हूँ, किन्तु उसका ज्ञान क्या है ? इस विराट सृष्टि में से उसे रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द का ही, और वह भी अत्यन्त संकीर्ण दायरे में पता चलता है। इससे आगे वह थक जाता है और कहता है-हम को कुछ पता नहीं है। • इस प्रकार इस अखिल सृष्टि में से उसे सिर्फ पाँच बातें मालूम पड़ीं और इन पाँचों में
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